भगीरथ घर छोड़कर हिमालय के क्षेत्र में आए। इन्द्र की स्तुति की। इन्द्र को अपना उद्देश्य बताया। इन्द्र ने गंगा के अवतरण में अपनी असमर्थता प्रकट की। साथ ही उन्होंने सुझाया कि देवाधिदेव की स्तुति की जाए। भागीरथ ने देवाधिदेव को स्तुति से प्रसन्न किया। देवाधिदेव ने उन्हें सृष्टिकर्ता की आराधना का सुझाव दिया। क्योंकि गंगा तो उनके ही कमंडल में थी।
दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गोकर्ण नामक तीर्थ में जाकर ब्रह्मा की कठिन तपस्या की। तपस्या करते करते कितने ही वर्ष बीत गये। ब्रह्माजी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा जी को पृथ्वी पर लेजाने का वरदान दिया।
प्रजापति ने विष्णु आराधना का सुझाव दिया। विष्णु को भी अपनी कठिन तपस्या से भागीरथ ने प्रसन्न किया। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही भगीरथ के प्रयत्न से संतुष्ट हुए। और अंत में भगीरथ ने गंगा को भी संतुष्ट कर मृत्युलोक में अवतरण की सम्मति मांग ली।
विष्णु ने अपना शंख भगीरथ को दिया और कहा कि शंखध्वनि ही गंगा को पथ निर्देश करेगी। गंगा शंखध्वनि का अनुसरण करेगी। इस प्रकार शंख लेकर आगे-आगे भगीरथ चले और उनके पीछे-पीछे पतितपावनी, त्रिपथगामिनी, शुद्ध सलिल गंगा।
ब्रह्म लोक से अवतरण के समय, गंगा सुमेरू पर्वत के बीच आवद्ध हो गयी। इस समय इन्द्र ने अपना हाथी ऐरावत भगीरथ को दिया। गजराज ऐरावत ने सुमेरू पर्वत को चार भागों में विभक्त कर दिया। जिसमें गंगा की चार धाराएं प्रवाहित हुई। ये चारों धाराएं वसु, भद्रा, श्वेता और मन्दाकिनी के नाम से जानी जाती है। वसु नाम की गंगा पूर्व सागर, भद्रा नाम की गंगा उत्तर सागर, श्वेता नाम की गंगा पश्चिम सागर और मंदाकिनी नाम की गंगा अलकनन्दा के नाम से मृत्युलोक में जानी जाती है।
सुमेरू पर्वत से निकल कर गंगा कैलाश पर्वत होती हुई प्रबल वेग से पृथ्वी पर अवतरित होने लगी। वेग इतना तेज था कि वह सब कुछ बहा ले जाती। अब समस्या यह थी कि गंगाजी के वेग को पृथ्वी पर कौन संभालेगा? ब्रह्माजी ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के अलावा और किसी में इस वेग को संभालने की शक्ति नही है। इसलिये गंगा का वेग संभालने के लिये भगवान शंकर से अनुग्रह किया जाये। महाराज भागीरथ ने एक अंगूठे पर खडे होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकरजी अपनी जटाओं में गंगाजी को संभालने के लिये तैयार हो गये। गंगा के प्रबल वेग को रोकने के लिए महादेव ने अपनी जटा में गंगा को धारण किया। इस प्रकार गंगा अपने अहंभाव के चलते बारह वर्षों तक शंकर की जटा में जकड़ी रही।
भगीरथ ने अपनी साधना के बल पर शिव को प्रसन्न कर कर गंगा को मुक्त कराया। भगवान शंकर पृथ्वी पर गंगा की धारा को अपनी जटा को चीर कर बिन्ध सरोवर में उतारा। यहां सप्त ऋषियों ने शंखध्वनि की। उनके शंखनाद से गंगा सात भागों में विभक्त हो गई। मूलधारा भगीरथ के साथ चली। महाराज भागीरथ के द्वारा गंगाजी हिमालय की घाटियों से कल कल का विनोद स्वर करतीं हुई मैदान की तरफ़ बढीं। आगे आगे भागीरथ जी और पीछे पीछे गंगाजी। यह स्थान हरिद्वार के नाम से जाना जाता है।
हरिद्वार के बाद गंगा की मूलधारा भगीरथ का अनुसरण करते हुए त्रिवेणी, प्रयागराज, वाराणसी होते हुए जह्नु मुनि के आश्रम पहुँची। भगीरथ की बाधाओं का यहां भी अंत न था। संध्या के समय भगीरथ ने वहीं विश्राम करने की सोची। परन्तु भगीरथ को अभी और परीक्षा देनी थी। संध्या की आरती के समय जह्नु मुनि के आश्रम में शंखध्वनि हुई। शंखध्वनि का अनुसरण कर गंगा जह्नु मुनि का आश्रम बहा ले गई। ऋषि क्रोधित हुए। उन्होंने अपने चुल्लु में ही भर कर गंगा का पान कर लिया। भगीरथ अश्चर्य चकित होकर रह गए। उन्होंने ऋषि की प्रार्थना शुरू कर दी। प्रार्थना के फलस्वरूप गंगा मुनि के कर्ण-विवरों से अवतरित हुई। गंगा यहां जाह्नवी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
यह सब देख, कोतुहलवश जह्नुमुनि की कन्या पद्मा ने भी शंखध्वनि की। पद्मा वारिधारा में परिणत हो गंगा के साथ चली। मुर्शिदाबाद में घुमियान के पास भगीरथ दक्षिण मुखी हुई। गंगा की धारा पद्मा का संग छोड़ शंखध्वनि से दक्षिण मुखी हुई। पद्मा पूर्व की ओर बहते हुए वर्तमान बांग्लादेश को गई। दक्षिण गामिनी गंगा भगीरथ के साथ महामुनि कपिल के आश्रम तक पहुँची। ऋषि ने वारि को अपने मस्तक से लगाया और कहा, हे माता पतितपावनी कलि कलुष नाशिनी गंगे पतितों के उद्धार के लिए ही आपका पृथ्वी पर अवतरण हुआ है। अपने कर्मदोष के कारण ही सगर के साठ हजार पुत्र क्रोधग्नि के शिकार हुए। आप अपने पारसरूपी पवित्र जल से उन्हें मुक्ति प्रदान करें। मां वारिधारा आगे बढ़ी। भस्म प्लावित हुआ। सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार हुआ। भगीरथ का कर्मयज्ञ सम्पूर्ण हुआ। वारिधारा सागर में समाहित हुई। गंगा और सागर का यह पुण्य मिलन गंगासागर के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ।
11 comments:
मनोज जी
आपने गंगा अवतरण की कथा को इस ब्लाग पर लिखा आपका आभार। चित्र बहुत अच्छे है उम्मीद है नेट की दुनिया में विचरण करती नई पीढी को भी यह भायेगी ।
....अदभुत !!!
सुनिता जी आपने ही प्रेरित किया था मां गंगा के प्रति कुछ लिखूँ। विद्यार्थी जीवन में चार साल तक गंगा के प्रदूषण पर शोध किया था। पर एक अन्य दिशामें आलेख लिख डाला। १९९० से कोलकाता में था, पर गंगा सागर कभी नहीं गया। ये आपकी ही प्रेरणा थी कि हरिद्वार से गंगा सागर तक की यात्रा भी कर डाली।
manoj ji
apane ganga avtaran ki katha ko bohat hi adbhoot purna likha hai, apaka bohat bohat abhar. mai yeh ummid karti hu ki apka yeh blog hamari nai genration ke liye preranadayi rahega...
manoj ji
apane ganga avtaran ki katha ko bohat hi adbhoot purna likha hai, apaka bohat bohat abhar. mai yeh ummid karti hu ki apka yeh blog hamari nai genration ke liye preranadayi rahega...
Manoj ji,
hamari or se ek request hai ki ap Ganga Sagar ki katha ko likhiye..
ganga ki kahtha sach main bahut ki aachi hai.....mujhe aaj hi pata chala ki ganga kaise earth par aai....bahut hi aabhar aapka jo itni aahi tareeke se aapne samjhya is note main thanku
गंगा नदी की कहानी शेयर करने क लिए आपका बहुत - बहुत धन्यवाद.
यह शिव तांडव स्तोत्र की व्याख्या बहुत ही अच्छी हैं. आपका बहुत बहुत धन्यवाद.. यदि आप शिव तांडव के बारे में और अधिक जानना कहते हैं तो इस लिंक पर क्लिक करे: https://www.newstrend.news/175682/shiv-tandav-strot-ke-labh/
गंगा अवतरण की कथा कौतूहल बढ़ाने वाली है |कथा रोमांचक है |चमत्कारिक कथा है |चित्र भी बहुत अच्छे हैं |
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