Wednesday, April 21, 2010

गंगावतरण ....एक आलौकिक कथा- भाग चार

भगीरथ घर छोड़कर हिमालय के क्षेत्र में आए। इन्‍द्र की स्‍तुति की। इन्‍द्र को अपना उद्देश्‍य बताया। इन्‍द्र ने गंगा के अवतरण में अपनी असमर्थता प्रकट की। साथ ही उन्‍होंने सुझाया कि देवाधिदेव की स्‍तुति की जाए। भागीरथ ने देवाधिदेव को स्‍तुति से प्रसन्‍न किया। देवाधिदेव ने उन्‍हें सृष्टिकर्ता की आराधना का सुझाव दिया। क्योंकि गंगा तो उनके ही कमंडल में थी।

दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गोकर्ण नामक तीर्थ में जाकर ब्रह्मा की कठिन तपस्या की। तपस्या करते करते कितने ही वर्ष बीत गये। ब्रह्माजी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा जी को पृथ्वी पर लेजाने का वरदान दिया।

प्रजापति ने विष्‍णु आराधना का सुझाव दिया। विष्‍णु को भी अपनी कठिन तपस्‍या से भागीरथ ने प्रसन्‍न किया। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश तीनों ही भगीरथ के प्रयत्‍न से संतुष्‍ट हुए। और अंत में भगीरथ ने गंगा को भी संतुष्‍ट कर मृत्‍युलोक में अवतरण की सम्‍मति मांग ली।

विष्‍णु ने अपना शंख भगीरथ को दिया और कहा कि शंखध्‍वनि ही गंगा को पथ निर्देश करेगी। गंगा शंखध्‍वनि का अनुसरण करेगी। इस प्रकार शंख लेकर आगे-आगे भगीरथ चले और उनके पीछे-पीछे पतितपावनी, त्रिपथगामिनी, शुद्ध सलिल गंगा।

ब्रह्म लोक से अवतरण के समय, गंगा सुमेरू पर्वत के बीच आवद्ध हो गयी। इस समय इन्‍द्र ने अपना हाथी ऐरावत भगीरथ को दिया। गजराज ऐरावत ने सुमेरू पर्वत को चार भागों में विभक्‍त कर दिया। जिसमें गंगा की चार धाराएं प्रवाहित हुई। ये चारों धाराएं वसु, भद्रा, श्‍वेता और मन्‍दाकिनी के नाम से जानी जाती है। वसु नाम की गंगा पूर्व सागर, भद्रा नाम की गंगा उत्तर सागर, श्‍वेता नाम की गंगा पश्चिम सागर और मंदाकिनी नाम की गंगा अलकनन्दा के नाम से मृत्‍युलोक में जानी जाती है।

DecentoftheGanga सुमेरू पर्वत से निकल कर गंगा कैलाश पर्वत होती हुई प्रबल वेग से पृथ्वी पर अवतरित होने लगी। वेग इतना तेज था कि वह सब कुछ बहा ले जाती। अब समस्या यह थी कि गंगाजी के वेग को पृथ्वी पर कौन संभालेगा? ब्रह्माजी ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के अलावा और किसी में इस वेग को संभालने की शक्ति नही है। इसलिये गंगा का वेग संभालने के लिये भगवान शंकर से अनुग्रह किया जाये। महाराज भागीरथ ने एक अंगूठे पर खडे होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकरजी अपनी जटाओं में गंगाजी को संभालने के लिये तैयार हो गये। गंगा के प्रबल वेग को रोकने के लिए महादेव ने अपनी जटा में गंगा को धारण किया। इस प्रकार गंगा अपने अहंभाव के चलते बारह वर्षों तक शंकर की जटा में जकड़ी रही।

DSCN0464 भगीरथ ने अपनी साधना के बल पर शिव को प्रसन्‍न कर कर गंगा को मुक्‍त कराया। भगवान शंकर पृथ्वी पर गंगा की धारा को अपनी जटा को चीर कर बिन्‍ध सरोवर में उतारा। यहां सप्‍त ऋषियों ने शंखध्‍वनि की। उनके शंखनाद से गंगा सात भागों में विभक्‍त हो गई। मूलधारा भगीरथ के साथ चली। महाराज भागीरथ के द्वारा गंगाजी हिमालय की घाटियों से कल कल का विनोद स्वर करतीं हुई मैदान की तरफ़ बढीं। आगे आगे भागीरथ जी और पीछे पीछे गंगाजी। यह स्‍थान हरिद्वार के नाम से जाना जाता है।

IMG_5924 हरिद्वार के बाद गंगा की मूलधारा भगीरथ का अनुसरण करते हुए त्रिवेणी, प्रयागराज, वाराणसी होते हुए जह्नु मुनि के आश्रम पहुँची। भगीरथ की बाधाओं का यहां भी अंत न था। संध्‍या के समय भगीरथ ने वहीं विश्राम करने की सोची। परन्‍तु भगीरथ को अभी और परीक्षा देनी थी। संध्‍या की आरती के समय जह्नु मुनि के आश्रम में शंखध्‍वनि हुई। शंखध्‍वनि का अनुसरण कर गंगा जह्नु मुनि का आश्रम बहा ले गई। ऋषि क्रोधित हुए। उन्‍होंने अपने चुल्‍लु में ही भर कर गंगा का पान कर लिया। भगीरथ अश्‍चर्य चकित होकर रह गए। उन्‍होंने ऋषि की प्रार्थना शुरू कर दी। प्रार्थना के फलस्‍वरूप गंगा मुनि के कर्ण-विवरों से अवतरित हुई। गंगा यहां जाह्नवी के नाम से प्रसिद्ध हुई।

यह सब देख, कोतुहलवश जह्नुमुनि की कन्‍या पद्मा ने भी शंखध्‍वनि की। पद्मा वारिधारा में परिणत हो गंगा के साथ चली। मुर्शिदाबाद में घुमियान के पास भगीरथ दक्षिण मुखी हुई। गंगा की धारा पद्मा का संग छोड़ शंखध्‍वनि से दक्षिण मुखी हुई। पद्मा पूर्व की ओर बहते हुए वर्तमान बांग्लादेश को गई। दक्षिण गामिनी गंगा भगीरथ के साथ महामुनि कपिल के आश्रम तक पहुँची। ऋषि ने वारि को अपने मस्‍तक से लगाया और कहा, हे माता पतित28032010104पावनी कलि कलुष नाशिनी गंगे पतितों के उद्धार के लिए ही आपका पृथ्‍वी पर अवतरण हुआ है। अपने कर्मदोष के कारण ही सगर के साठ हजार पुत्र क्रोधग्नि के शिकार हुए। आप अपने पारसरूपी पवित्र जल से उन्‍हें मुक्ति प्रदान करें। मां वारिधारा आगे बढ़ी। भस्‍म प्‍लावित हुआ। सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार हुआ। भगीरथ का कर्मयज्ञ सम्‍पूर्ण हुआ। वारिधारा सागर में समाहित हुई। गंगा और सागर का यह पुण्‍य मिलन गंगासागर के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ।


28032010110प्रस्तुतकर्ता-मनोज कुमार

गंगावतरण – एक आलौकिक कथा भाग-२

श्रीमद भगवत में गंगावतरण की कथा है। प्राचीन काल की बात है। अयोध्‍या में इक्ष्‍वाकु वंश के राजा सगर राज करते थे। वे बड़े ही प्रतापी, दयालु, धर्मात्‍मा और प्रजा हितैषी थे।

सगर का शाब्दिक अर्थ है विष के साथ जल। हैहय वंश के कालजंघ ने सगर के पिता वाहु को एक संग्राम में पराजित कर दिया था। राज्‍य से हाथ धो चुके वाहु अग्नि और्व ऋषि के आश्रम चले गए।

इसी समय वाहु के किसी दुश्‍मन ने उनकी पत्‍नी को विष खिला दिया। जब उन्‍हें जहर दिया गया तो वो गर्भवती थी। ऋषि और्व को जब यह पता चला तो उन्‍होंने अपने प्रयास से वाहु की पत्‍नी को विषमुक्‍त कर जान बचा ली। इस प्रकार भ्रूण की रक्षा हुई और समय पर सगर का जन्‍म हुंआ। विष को गरल कहते हैं। चूकिं बालक का जन्म गरल के साथ हुआ था इस लिए वह स + गर = सगर कहलाया।

सगर के पिता वाहु का और्व ऋषि के आश्रम में ही निधन हुआ। सगर बड़े होकर काफी बलशाली और पराक्रमी हुए। उन्‍होंने अपने पिता का खोया हुआ राज्‍य वापस अपने बल और पराक्रम से जीता। इस प्रकार सगर ने हैहयों को जीत कर अपने पिता की हार का बदला लिया।

ऋषि अग्नि अर्व हैहयों के परंपरागत शत्रु थे। उन्‍होंने भी सगर को हैहयों के विरूद्ध संग्राम में हर प्रकार की सहायता प्रदान की। सगर की दो पत्‍नियां थी वैदर्भी और शैव्या। राजा सगर ने कैलाश पर्वत पर दोनों रानियों के साथ जाकर भगवान शंकर की कठिन तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उनसे कहा कि तुमने पुत्र प्राप्ति की कामना से मेरी आराधना की है। अतएव मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम्हारी एक रानी के साठ हजार पुत्र होंगे किन्तु दूसरी रानी से तुम्हारा वंश चलाने वाला एक ही सन्तान होगा।

वैदभी के गर्भ से मात्र एक पुत्र था उसका नाम था असमंज। वे बड़े दुष्‍ट और प्रजा को दुख पहुंचाने वाले थे। जबकि सगर अत्यंत ही धार्मिक सहिष्‍णु और उदार थे। सगर के लिए असमंज का व्‍यवहार बड़ा ही दुख देने वाला था। जब उसकी आदतें नहीं सुधरी तो सगर ने असमंज को त्‍याग दिया।

असमंज के औरस से अंशुमान का जन्‍म हुआ। वह बहुत ही पराक्रमी था। अंशुमान ने अश्‍वमेघ और राजसूय यज्ञ सम्‍पन्‍न कराया और राजर्षि की उपाधि प्राप्‍त की।

शैव्‍या के गर्भ से साठ हजार पुत्र उत्‍पन्‍न हुए। सभी काफी वीर और पराक्रमी थे। उनके ही बल पर सगर ने मध्‍यभारत में एक विशाल साम्राज्‍य की स्‍थापना की।

सगर न सिर्फ बहुबली और पराक्रमी थे, बल्कि धार्मिक प्रकृति के व्‍यक्ति भी थे। वे ऋषियों महर्षियों का काफी आदर सत्‍कार और सम्‍मान किया करते थे। वशिष्‍ठ मुनि ने सगर को सलाह दी की अश्‍वमेघ यज्ञ का अनुष्‍ठान करें ताकि उनके साम्राज्‍य का विस्तार हो।

ऐसी मान्‍यता है कि प्राचीन काल में किए जाने वाले यज्ञानुष्‍ठानों में अश्‍वमेघ यज्ञ और राजसूय यज्ञ सर्वश्रेष्‍ठ थे। उन दिनों बड़े व प्रतापी और पराक्रमी सम्राट ही अश्‍वमेघ यज्ञ का आयोजन करते थे। इस यज्ञ में 99 यज्ञ सम्‍पन्‍न होने पर एक बहुत अच्‍छे गुणों वाले घोड़े पर जयपत्र बांध कर छोड़ दिया जाता था। उस पत्र पर लिखा होता था कि घोड़ा जिस जगह से गुजरेगा वह राज्‍य यज्ञ करने वाले राजा के अधीन माना जाएगा। जो राजा या जगह स्‍वामी अधीनता स्‍वीकार नहीं करते थे, वे उस घोड़े को रोक लेते थे और युद्ध करते थे।

घोड़े के साथ हजारों सैनिक साथ साथ चलते थे। एक वर्ष पूरा होने पर घोड़ा वापस लौट आता था। इसके बाद उसकी बलि देकर यज्ञ पूर्ण होता था। महाराजा सगर ने अपने यज्ञ के घोड़े श्यामकर्ण की सुरक्षा के लिए हजारो सैनिकों की व्‍यवस्‍था की थी। वीर बाहुबलि सैनिक घोडे़ के साथ निकले, और आगे बढ़ते रहे। सगर का प्रताप चतुर्दिक फैल रहा था। जगह जगह उनके बल-पराक्रम और शौर्य की चर्चा होने लगी।

इससे देवराज इन्‍द्र को शंका हुई। सगर के इस अश्वमेघ यज्ञ से भयभीत होकर इन्‍द्र यह सोचने लगे कि अगर यह अश्‍वमेघ यज्ञ सफल हो गया तो यज्ञ करने वाले को स्‍वर्गलोक का राजपाट मिल जाएगा। इन्‍द्र ने यज्ञ के घोड़े को अपने मायाजाल के बल पर चुरा लिया। इतना ही नहीं उन्‍होंने इस घोड़े को पाताललोक में तपस्‍यारत महामुनि कपिल के आश्रम में छिपा दिया। उस समय मुनि गहन साधना में लीन थे। फलतः उन्‍हें पता ही नहीं लगा कि क्‍या हो रहा है?

एक साल पूरा होने को जब आया तो घोड़ा न लौटा सगर चिन्‍तित हो उठे। राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े की खोज कर लाने का आदेश दिया। ये पुत्र यज्ञ के घोड़े की खोज में निकल पड़े।

प्रस्तुतकर्ता- मनोज कुमार

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