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Friday, September 25, 2009

गंगा नदी ही नही एक अद्भभुत संस्कृति भी



गंगा नदी ही नही अद्वभुत संस्कृति - भाग--2........................गंगा की वैभवता,पवित्रता एंव विशालता ने प्राचीन समय से ही सभी को प्रभावित किया है।गंगा अवतरण की मिथक का वर्णन पुराणों में ही नही वरन साहित्य कला संस्कृति एंव मूर्ति कला में भी कलाकारों ने र्दशाया । कालिदास ने गंगा को मोतियों की माला की संज्ञा दी है, जिसे पृथ्वी ने अपने गले में सजाया हुआ है। 17वी शताब्दी में राजा तिरूमल नायकर के दरबार में एक संस्कृत कवि नीलकंठ दीक्षित ने गंगावतरण नाम का महाकाव्य रचा ।वाल्मीकी ने रामायण में गंगावतरण की घटना का आलौकिक वर्णन किया है। अपने ग्रन्थ गंगा लहरों जगन्नाथ पंडित ने गंगा को समस्त नदियों में श्रेष्ठ कहा जिसे शिव की जटाआे में वास करने का सौभाग्य मिला।उन्होने गंगा के स्वर्ग से पृथ्वी पर आने को उसका महान त्याग बताया ,6वी शताब्दी में किरार्जुनीय में भारवी ने उत्तररामचरितमें भवभूति ने गंगा के असीम वैभव का वर्णन किया।तमिल साहित्य में भी गंगा की पवित्रता एंव विश्वास  के उदाहरण मिलते है।
चित्रकारों एंव मूर्तिकारों ने भी गंगावतरण की आलौकिकता का चित्रण किया । आन्ध्र प्रदेश के नगर नेपाजी मंदिर में भित्ति चित्र में भगवान शिव की जटाअो में गंगा के वास करने के कारण  पार्वती को प्रसन्न करने का चित्र मिलता है।मूर्तियों में गंगा के विभिन्न रूपों को उकेरा गया है। उत्तर प्रदेश के अहिछत्र में गंगा की शिव के पास दक्षिणामूर्ति के धनी दक्षिणामुर्ति में तथा दूसरी शताब्दी के कुषाण युग की मूर्तिया एंव मानवीय स्वरूप में गंगा पशिचमी बंगाल के मुर्षिदाबाद में मूर्ति प्राप्त होती हैअपनी उच्चकोटि की मूर्ति कला के धनी दक्षिण भारतीय मूर्ति कारों ने गंगावतरण का कलात्मक वर्णन महाबलिपुरम के अज्ञात मूर्ति कारों ने किया हैनरिक जिमकर ने आइ आफ इंडियन एशिया में लिखा है कि" एक बहुत बडी चट्टान पर बने एक चित्र में गंगावतरण की कहानी है। सातवी शताब्दी में गंगावतरण का निरूपण मामल्लपुरम में शिलाआे में तराशे हुए उच्चित्रों में से एक भव्य कृति में हुआ है यही नही भारतीय संगीत में विभन्न रागों के माध्यम से भी गंगावतरण की चर्चा संगीत में हुई है।

इस पवित्र नदी के किनारे जो संस्कृति पल्लवित हुई उसके विकास की गाथा तो बहुत विस्तृत है । वैदिक काल में केवल एक ही बार गंगा का उल्लेख आया है।इस समय गंगा एक भव्य नदी थी जिसमें नावें चलती थी आैर गंगा के मुहाने बसा ताम्रलिप्ती नगर पूरा पत्तन नगर बन चुका था ,इण्डोनेशिया,चीन एंव श्रीलंका से आने वाले यात्री ताम्रलिप्ती बंदरगाह पर ही आते थे ।वैदिक काल के बाद की साहित्यिक कृतियों में गंगा तटों पर विकसित हुई संस्कृति का वर्णन मिलता है।जिसमें गंगा के  आस-पास के इलाकों का आर्थिक ,व्यापारिक,राजनैतिक एंव सामाजिक स्थिति का पता चलता है।इसके अलावा तत्कालीन वनस्पतियों ,प्राकृतिक संसाधनों वन्य प्राणियों के बारे में जानकारी मिलती है। बाण के हर्षचरित में वर्णन है कि गंगा तट पर बसें मथुरा व काशी में कपडों की मंडियां  विकसित हो चुकी थी ।गंगा के डेल्टा के लोग ताम्रलिप्ती पतन से आयात-नियात का काय करते थे आैर गुप्त काल में यहां के लोगो का जीवन स्तर बहुत उपर था। भारत के सुप्रसिद्व विद्वान वैज्ञानिक.डा0एम.एस.स्वामीनाथन के शब्दों में "वेदों से आधुनिक युग तक मनीषियों ने अनेक रूपों में गंगा पर विशद प्रकाश डाला है उस वृहद साहित्य के बीच  पेठने की शक्ति कुछ ही लोगो में है उस साम्रगी का आस्वाद मात्र पढकर ही नही किया जा सकता ,इसके लिए संवेदनात्मक रूप से उसके जुडाव को जानना भी आवश्यक है " .............आगे जारी है

Sunday, September 20, 2009

गंगा नदी ही नही एक अद्भभुत संस्कृति





 गंगा एक विशाल नदी है,  जो हिमालय से सागर को जोडते हुए गंगासागर तक  की लगभग 2525कि0 मी0 की यात्रा के दौरान 21प्रथम त्रेणी,22द्वितीय त्रेणी तथा 48 साधारण श्रेणी के नगरों से गुजरती है।हिमालय की पर्वत श्रेणियों  की पुरातत्वीय  गुफाओ में जीते भौगौलिक प्रदेशों को नापतें ,एतिहासिक घटनाओ को समेटते हुए इस नदी ने जीवन संस्कृति को प्रभावित किया है।जवाहर लाल नेहरू ने अपनी वसीयत में लिखा है कि है:-
"गंगा भारत की प्रतीक है लोग इससे प्यार करते है उनकी  स्मृतियां आशाएं  एंव विजय गीत हर एक निराशा और  पराजय भी गंगा से संबद्व है।"



 (गंगोत्तरी मंदिर,प्राचीन काल में यह लकडी व पत्थर का बना था)



( शिव, गंगा के वेग को धारण करते हुए )


भारत की समस्त नदियों में यही एकमात्र  ऎसी नदी है जो  स्वर्ग से उतर कर पृथ्वी पर आई है गंगावतरण की घटना  अपने आप में आलौकिक है जिसे हम बचपन से सुनते आ रहे है। इसका वर्णन महाभारत के  वनपर्व ,बाल्मीकी रामायण  के बालकाण्ड ,ब्रह्रमाण्ड पुराण,पघ पुराण और भागवत पुराण में मिलता है पौराणकि कथाओ  के अनुसार गंगा की उत्पत्ति सृष्टि के रचयिता ......... ....ब्रहृमा के कमण्डल  के पवित्र जल से हुई है।जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया तो अपने त्रिवकिम रूप  से पृथ्वी तथा दूसरा पैर स्वर्ग की ओर बढाया तो विष्णु के चरणो से आकाशगंगा की उत्पत्ति हुई  और यह आकाशगंगा कैलाश पवत के इर्द-गिर्द इठलाती रही । कई शताब्दियों तक यह आकाशगंगा विष्णुपदी के रूप में आकाश में विचरण करती रही । सगर वंश के कई राजाओ ने अपने पुरखों की अस्थियों को पवित्र कराने के लिए पीढी दर पीढी अथक प्रयत्नशील रहे ।तत्पश्चात  कई वर्षो के कठाेर तप के बाद भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर आने के लिए राजी कर लिया। गंगा के मन में अंहकार पैदा हो गया और उसने सोचा कि वह शिव को अपने साथ पताल ले जायेगी गंगा के पृथ्वी पर अवतरित होने से पृथ्वी को अपने विनाश की चिन्ता हुई और ब्रहृमा की शरण में गयी ब्रहृमा ने पृथ्वी को शिव की तपस्या करने को कहा क्योकि वही गंगा के वेग को आधार प्रदान कर सकते थे ।भगीरथ ने शिव की एक पैर से तपस्या की,उसकी तपस्या से प्रसन्न हो शिव ने गंगा को अपने सिर पर जटाओ में धारण कर लिया फिर धीरे-धीरे अपनी जटाओ  से गंगा को मुक्त किया और वह बहती हुई सात धाराओ में बट गयी जिसमें से तीन  और अंतिम धारा भगीरथ के पीछे चल कर अपने गन्तव्य की ओर पहुंची............।
अगर गंगा के लौकिक पक्ष को देखे तो गंगा की भगीरथी तथा अलकनन्दा दो धारायें हिमाचल की चौखम्बा गढवाल हिमालय पवत श्रृंखला के सतोपथ शिखर से दो विपरीत दिशाओ में बहने वाली पनढाली के पाद प्रदेश में बने सरोवरों से निकलती है ।विपरीत दिशाओ में बहती हुई दोनों धारायें देवप्रयाग में आकर मिल जाती है और  इसी स्थान से अलकनन्दा एंव भागीरथी धारायें गंगा बन कर ऋषिकेश को पार करती हुई मैदानी भागो में पर्दापण करती है।गंगा का वास्तविक स्रोत गंगोत्री ग्लेशियर है संतोपंथ शिखर से गौमुख तक यह शिखर ग्लेशियर 30 कि.मी.लम्बा और 2से 3 कि.मी. चौडा है।......जारी   है  दुसरे भाग में .................................

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