Tuesday, January 19, 2010

ऋषिकेश का भरत मंदिर ..........बंसत पंचमी पर विशेष




कुम्भ नगरी हरिद्वार से लगभग 25 किमी की दूरी पर ऋषिकेश तीर्थ है जिसकी  पौराणकिता व ऐतिहासिकता पर मै पिछली पोस्टो ऋषिकेश एक तपस्थली के अंतर्गत काफी विस्तार से बता चुकी हूं।इसी पावन तीर्थ में  प्राचीन भरत मंदिरहै। यह मंदिर अपने नाम के अनुकुल दशरथि पुत्र भरत का न हो कर भगवान विष्णु का है। ऋषि केश तीर्थ का  प्राचीन नाम हृषीकेश था वराह पुराण के अनुसार ऋषि भारद्वाज के काल में ही रैभ्य मुनि हुए वह भारद्वाज ऋषि के मित्र थे । रैभ्य मुनि के घोर तप से प्रसन्न हो कर स्वयं भगवान विष्णु ने आम के पेड पर बैठ कर मुनि रैभ्य को दर्शन दिये ,भगवान विष्णु के भार से आम का वृक्ष क्षुक कर कुबडा हो गया । इसी से  जगह का नाम  कुब्जाम्रक भी पडा । स्कन्द पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने मुनि रैभ्यको यह वरदान दिया कि मै कुब्जाम्रक र्तीथ में लक्ष्मी सहित सदैव निवास करूंगा  क्योकि अपनी समस्त इन्द्रयों हृषीक  का जीत कर तुमने मेरे (ईश के) दर्शन कर लिए है,अत: यह स्थान अब हृषीकेश के नाम से जाना जायेगा । कुब्जाम्रके महातीर्थ वसामि रमयासह,
हृषीकाणि पुराजित्वा दर्श ! संप्रार्थितस्त्वया ।
यद्वाहं तु हृषीकशों भवाम्यत्र समाश्रित:
ततोस्या परकं नाम हृषीकेशाश्रित  स्थलम्।। 
स्कंद पुराण के अनुसार भगवान विष्णु महामुनि पारद को ऋषिकेश की महत्ता बताते हुए कहते है कि -कृते वराहरूपेण त्रेयायाम् कृतवीयर्यजम्
                 द्वापर वामनं देवं कलौ भरतमेव च 
                          नमस्यंति महाभाग भवेयुर्मुक्ति भागिन
अर्थात सतयुग में वराह,त्रेता में कृतवीर्य,द्वापर में वामन और कलयुग में जो भरत के नाम से  मेरी पूजा अर्चना करेगा उसे नित्य मुक्ति प्राप्त होगी ।

ऋषिकेश तीर्थ का महत्व शहर के बीचों बीच स्थित भरत मंदिर से है ।भरत मंदिर अत्यतं प्राचीन है,समान्य जन इसे दाशरथि भरत का मंदिर समझते है क्योकि इन्हे ऎसी संगति भी दिखायी देती है थोडा आगे लक्ष्मण मंदिर है लक्ष्मण झूला है,शत्रुघन मंदिर है।लेकिन यह विष्णु भगवान का मंदिर है।इतिहासविदों का मानना है कि ललितादित्य मुक्तापीड के हरिद्वार तथा ऋषिकेश में मंदिर निर्माता होने की संभावना से इंकार नही किया जा सकता यह महान निर्माता सूर्य व विष्णु का उपासक था ।इस सम्बन्ध एक अनुश्रुति यह भी मिलती है कि कश्मीर के राजा ने ही पूर्व काल में भरत मंदिर को बनवाया था बाद में वही के किसी राजा ने इसका जीर्णोद्वार  करवाया था ।  बारह से नौ श्वेत गुम्बदों और पाषाण भित्ति से बने भरत मंदिर के अंदर काली शालिग्राम की शिला की पांच फूट ऊची हृषीकेश नारायण की चतुर्भुजी प्रतिमा है । इसका पुनर्रूद्वार बारहवी शती में हुआ ।  
यही श्री हृषिकेश भगवान  भरत महाराज है । अब से 121 वर्ष पहले आदि शंकराचार्य जी ने इस मंदिर की मुर्ति की पुन: प्रतिष्ठा की । तुलसीदास रामायण अनुसार विश्व भरन पोषण करजोई ,ताकर नाम भरत अस होई
अर्थात विश्व का पालन पोषण करने वाले ऋषिकेश भगवान भी भरत जी शंख,चक्र,गदा ,पदम को धारण करने वाले भगवान विष्णु ही है ।      
कुछ इतिहासकार  मानते है रागपित्त से पीडित महीपत शाह, कुमायूं पर आक्रमण करने के विचार से जब हरिद्वार कुम्भ 1628 ई0  में भरत मंदिर के मंडप में दर्शनार्थ पंहुचा किन्तु भ्रान्ति चित्त से उसे लगा कि मुर्ति उसे क्रुद्व नेत्रों से देख रही है । उसने मूर्ति के नेत्रों को  उखडवा दिया यह कहकर हम तो आपके दर्शनों को आये है ओर तुम हमे क्रुद्व नेत्रों से देख रहे हो । राजा ने शायद यह समझा कि आंखे रत्न जडित है पर कांच की पा कर पुन: यथा स्थान लगवा  दिया । 
 मंदिर की परिक्रमा कर बद्रीनारायण के दर्शन का पुण्य मिल जाता है । मंदिर का वास्तु शिल्प उडीसा वास्तु शिल्प के समान है मंदिर की बाहरी दीवारों पर अंलकरण है और मूर्तियां उकेरी हई  है जो समय के प्रभाव के कारण या मानव प्रहार से खंडित किये जाने की संभावना है बाहर की मूर्तियां ढाई फूट के आकार की शिलांखडों से निर्मित सुदृढ भित्तिकाओ पर जडी हुई है । इन भित्तिकाओ की मोटाई  सात से आठ फीट बताई  गयी है ।मुख्यमुर्ति हृषिकेश विष्णु की है ।मंदिर के दायें परिक्रमा पंथ में पातालेश्वर  महादेव  है ।शिव का यह मंदिर ऋषि केश के  प्रमुख मंदिरों में से एक है । इसकें अधोतल में एक दर्शनीय शिवलिंग भी है जो पतालेशवर नाम को सार्थक करता है ,यही से प्राचीन मार्ग की संभावनायें मानी जाती है  


प्रति वर्ष बंसत पंचमी को यहां विशाल मेले का आयोजन होता है वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीय में  108 परिक्रमा करने वाले व्यक्ति को बद्रीनारायण के दर्शनों का लाभ व महत्ता की प्राप्ति होती है । 


सुनीता शर्मा

Thursday, January 14, 2010

some moments with Ganga



























































गंगा के प्रति विदेशियों के मन में भी आपार श्रद्वा व विश्वास दिखलाई पडता है या फिर माहौल से अविभूत हो जाते है। 

Wednesday, January 13, 2010

. बूमरैंग

बारिश है. लगभग ग्यारह बजे शुरु हुई. अचानक याद आया कि इन बीस दिनों के प्रवास में यह दूसरी बार हो रही है…. दोनों बार बारिश से पूर्व देखा प्रकृति का एक मजेदार नजारा याद आ गया. अपनी भाषा है प्रकृति की, अपने नियम हैं, अपने कायदे-कानून. और उन नियमों - कायदों का उल्लंघन पलट कर मारता है, प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने वाला अपने-आप दंड पा जाता है. जैसे कोई अनाङी हाथों से होता बूमरैंग. बूमरैंग शब्द को यहाँ जिस अर्थ में प्रयोग कर रहा हूँ, वह बता देना ठीक रहेगा, वरना शायद समझ की गाङी यहीं अटक गई, तो आगे प्रकृति के नियमों को मानने/स्वीकारने में दिक्कत आ सकती है. एक ऐसा शस्त्र जो प्रहारकर्ता पर ही पलटकर प्रहार कर दे, और बचने का कोई उपाय भी ना हो. जैसे वर्ल्ड-ट्रेड-सेन्टर का ध्वस्त होना. आतंकवाद का वह हथियार तो स्वयं अमेरिका का ही बनाया और चलाया हुआ था, उसीको मार गया- बूमरैंग! अब कोई यह समझने की/ सहानुभूति दिखाने की भूल भी ना करे कि उसमें निर्दोष जनों की जानें गई. उसमें जितने लोग थे, वे कौन थे? वहाँ क्या कर रहे थे? सर्वे भवन्तु सुखिनः का पाठ या कोई ऐसा ही विश्व-कल्याणकारी चिन्तन नहीं चल रहा था वहाँ! बल्कि शोषण चल रहा था. विश्व मानव को ठगने की, उसका खून चूसकर अमेरिकीयों को पिलाते रहने की कोई व्यापारिक साजिश चल रही थी. व्यापार चल रहा था, और व्यापार अभी शोषण का ही कानून-सम्मत रूप है. कानून- मानव कानून बनाता है अपनी सुविधा का ध्यान रखकर. जो ज्यादा शक्तिशाली है, कानून उसकी सुविधा के अनुसार बनता-बिगङता-बदलता रहता है. मगर प्रकृति का कानून शाश्वत नियमों की अकाट्य श्रृँखला है. मानव उस श्रृँखला को तोङने में जुटा है. चालाकी भी करता है. चालाकी करता है कि वह प्रकृति को बचाना चाहता है. जैसे अभी कोपेनहेगन में भी वही चली… बगुला भक्ति का नाटक चला. अब यह तो आज बच्चे भी समझ जाते हैं, प्रकृति के तो अनन्तानन्त कान-हाथ-पाँव हैं, उसका अपना गणित है, उसकी स्वीकृतियाँ-अस्वीकृतियाँ हैं.
जैसे प्रकृति हिंसा या विरोध पसन्द नहीं करती. कोई एक इकाई दूसरे की हिंसा करे, उसके क्रममें बाधक बने, यह प्रकृति की मान्य व्यवस्था नहीं है. इसीको मन्त्र-दृष्टाओं ने अहिंसा परमो धर्मः कह दिया. अहिंसा नियम है प्रकृति का, तो जो इस नियम को तोङता है, वह दण्डित हो जाता है, दुःख पाता है. प्रकृति में किसी नकारात्मक भाव के लिये स्थान नहीं है. शोक, भय या दुःख प्रकृति की व्यवस्था में हैं ही नहीं. तभी तो दुख देने वाला दिखाई नहीं देता, या कारण कोई भी मान लिया जाता है… पर मूल कारण प्रकृति की अपनी व्यवस्था के विरूद्ध मानव की गतिविधियाँ है. प्रकृति व्यवस्था में है. इसी व्यवस्था के दो सूत्र इस आलेख का विषय हैं- एक सूत्र यहीं, मेरी आँखों के सामने है, दूसरा मन-मष्तिस्क को मथता-गंगा के अस्तित्व का प्रश्न. और दोनों परस्पर इतने सम्बद्ध हैं कि एक के समझने से दूसरा समझ लिया जाता है.
हाँ, तो बारिश….दो बार… दोनों के साथ जुङा एक संकेत… प्रकृति की सूक्ष्म भाषा….सुधिजन पकङ सकें, ऐसी शुभ आशा.
कैंटीन में नाश्ता करके मैं मुख्य द्वार की तरफ़ बढ रहा था. मुख्य द्वार से अन्दर आने वाली सङक दो बागों में बटी है. दाहिनी तरफ़ की सङक तो गाङियों एवं मानवी पदचापों से व्यस्त रहती है, किन्तु जंगल से सटी बाँयी सङक वनचरों के लिये निरापद रहती है. सदा की तरह मैं इसी सङक पर नजर झुकाये चलता हुआ एक सुन्दर पतंगों के जोङे को मैथुन-रत देखता हूँ. मेरी पदचाप से दोनों बचने की कोशिश करते हैं. एक सीधा गति करता है, दूसरे को उल्टी गति लेनी पङती है, तो वह घिसटता सा लगता है. चटक नारंगी रंग पर लाल-काला धब्बा… कई धब्बे…और छोटी-छोटी चमकती आँखे. देखते ही लग जाये कि बङा जहरीला पतंगा है. किन्तु सुन्दर कितना है! इसके इतने चटक रंग कैसे बन गये! और अभी, इस मैथुन-रत अवस्था में इनकी सुन्दरता में जैसे चार चान्द ही लग गये हैं….. इनको बचाने की धुन में मेरा उठा पाँव कुछ क्षण उठा ही रह जाता है….कि यह दूसरा जोङा….तीसरा,चौथा… अरे! यह तो पूरी सङक ही अटी पङी है इन रेंगते-बचते पतंगों से! अपना पाँव दूसरे पाँव पर रखकर देखने लगा. ऐसा लगा जैसे कम्प्युटर पर कोई पृष्ठ खुलता हो- पहले धुंधला, अस्पष्ट और छितरा- छितरा सा, फ़िर धीरे से स्पष्ट होता…. अरे! यह दृष्य तो मैं पहले देख चुका हूँ…. सुबह-सुबह की सैर के समय…. ऐसे ही पाँव अटक गये थे….! इतनी बङी सँख्या में आनन्द मग्न जोङे. यह तो जैसे कोई महोत्सव ही चल रहा है. इतनी बङी सँख्या में मादा अंडे देगी! कितने पतंगे बन जायेंगे! और ये काटते हैं तो बङी जलन होती है. इनको मसल दो तो हाथ भयंकर गंध से सरोबार हो जाते हैं, मितली सी आने लगती है! … पर हैं कितने सुन्दर! ….उस दिन भी इतनी ही सँख्या में थे. शायद उस दिन भी बारिश आई थी………हाँ, उस दिन भी बारिश आई थी…. और बारिश के बाद ही पतंगों की बारात! चारों और पतंगे ही पतंगे दिखे. अल्पजीवी हैं, २४ या ४८ घंटे में ही सारा आनन्द-उत्सव हो जाता है इनका. देखो, कैसे मगन हैं एक दूसरे में! …. अभी अंडे…अभी बच्चे…. बरसात…इनका नृत्योत्सव…. और बस! सब फ़टाफ़ट! मगर ये बारिश आने की सूचना भी तो देते हैं. दोनों बार देखा है. इनका सामूहिक रूपसे रति-रत होना, और दो घंटे में बारिश! ….. बारिश होने के प्रयोजन में इनका यह उत्सव शामिल है. हाँ, प्रकृति में निष्प्रयोजन कुछ भी नहीं होता. हर घटना प्रयोजन सहित होती है. और इसकी हर इकाई परस्पर पूरक होती है. एक कङी टूटी तो पूरी श्रृँखला छिन्न-भिन्न हो जाती है. एक परमाणु से लेकर पूरे ब्रह्माण्ड तक और एक सूक्ष्मतम जन्तु से लेकर मानव तक… सब परस्पर पूरकता के सूत्र से जुङा है. कहीं कोई विरोध नहीं है, कहीं कोई संघर्ष नहीं है. संघर्ष की सारी आयोजना मानव के भ्रम से निकली, और इसका खामियाजा स्वयं मानव को ही भुगतना पङ रहा है.
जैसे रसायनिक खाद और कीटनाशकों ने खेत और खेती की सारी श्रृँखला को ही तहस-नहस कर दिया, और परिणाम सभी को भुगतना पङ रहा है. हाईटेक में बैठे विज्ञान-वेत्ताओं को ये जहरीले पतंगे खत्म करने की मनमें आई, तो बारिश का एक और प्रयोजन खतम. जाने कितने प्रयोजन हमने पहले ही खत्म कर दिये हैं. तभी तो ऋतु-चक्र बदल गया है. न समय पर मौसम बदलता है, न पूरा हो पाता है. गर्मी-सर्दी-बरषात सब अस्त-व्यस्त. तो मानव का अस्त-व्यस्त होना क्या बङी बात हो गई! सब जुङा है परस्पर. सब सम्बद्ध!
मगर मानव अभी नहीं समझेगा! इन पतंगों को नष्ट करने का रसायन बन ही रहा है कहीं ना कहीं. जहरीला और अनुपयोगी होने के नाम पर इनके विनाश का कोई विरोध भी नहीं होगा. ज्यादा दिन नहीं बचेंगे ये पतंगे. जो मानव गंगा जैसी जीवन दायिनी पवित्र नदी तक को नहीं छोङता…. गाय जैसे निरीह और अमृत-प्रदायी मातृ-तुल्य प्राणी को काट कर खा लेता है, उससे ये पतंगे क्या दया की उम्मीद करेंगे?
पर प्रकृति नियम से चलती है. चतुर तीरंदाज अपने ही तीर से मर जाता है, लोग कहते हैं कि उसकी लाठी चोट करती है, मगर दिखाई नहीं देती. बूमरैंग हो जाता है. बूमरैंग.-- साधक उम्मेदसिंह बैद... sahiasha.wordpress.com

Tuesday, January 12, 2010

हरिद्वार -कुम्भ नगरी....... कुम्भ स्नान का महत्व व स्नान की तिथियां


Posted by Picasaकुम्भ पर्व भारत का ही नही वरन् पूरे विश्व का सबसे बडा धार्मिक आयोजन है।कुम्भ पर्व बृहस्पति,सूर्य और चन्द्रमा के योग के आधार पर बनता है ।जब सूर्य मेश मे , तो हरिद्वार में कुम्भ लगता हैं। बृहस्पति प्रत्येक राशि में एक एक वर्ष रहता है व 12 वर्षो में वह सम्पूर्ण राशियों की यात्रा पूरी करता है किसी एक राशि में वह बारह वर्षो के बाद लोटकर आता है ।यही कारण है कि कुम्भ वर्व का योग जो मुख्यत: बृहस्पति की स्थिति पर निर्भर है प्रति बारहवें वर्ष मे ही बनता है ।

कुम्भ में सर्वाधिक  महत्व बृहस्पति का होता है जो सौरमण्डल का सबसे बडा ग्रह है इस पर्व से जुडी पौराणिक  कथा में बृहस्पति को देवों का गुरू बताया जाना इस दृष्टि से अर्थपुर्ण है । देवो दानवों बीच अमृत कलश के लिये संघर्ष बारह वर्षो तक चलता है इस अमृत कलश की रक्षा मे सूर्य,चन्द्र और बृहस्पति जयन्त की सहायता करते है । सूर्यअमृत कुम्भ को फूटने से बचाते है तो चन्द्रमा उसे गिरने से बचाते है । बृहस्पति के लिए माना जाता है कि असुरों को हाथ नही लगाने दिया इसलिए प्रतीकात्मक रूप से इसे पुराण कथा में सूर्य,चन्द्रमा और बृहसपति के विशेष महत्व को भी दर्शाया गया है । 
देवों- दानवों के बीच छीना छपटी में अमृत कलश से छलकी बूंदे बारह स्थानो पर गिरी ,उनमें से चार स्थान हरिद्वार,प्रयाग नासिक  और उज्जैन है शेष आठ देवलोक में माने जाते है । इनकी उपस्थित संभवतया खगोल चक्र के अदृश्य भागों में उपस्थित है । ग्रह योगो का मानव -जीवन जन्तुओ एवं वनस्पतियों पर गहरा प्रभाव पडता है।



कुम्भ पर्व के समय गंगा ,गोदावरी,शकप्रा आदि नदियों के जल के मंगलकारी होने की मान्यता के वैज्ञानिक आधार माने जाते है इसलिए कुम्भ मेले मे इन नदियों में स्नान करने वाले भले ही वैज्ञानिक तथ्यों से अन्जान हो पर श्रद्वा ऋषि-मुनियों द्वारा दिया ज्ञान, इन नदियों में कुम्भ के स्नान को अत्यतं महत्वपूर्ण बनाता है।     
स्नान का महत्व- लोके कुम्भ इति ख्यात: जाननीयात् सर्वकामद: अर्थात कुंभ पर्व मनुष्य की समस्त लौकिक कामनाओ को पूरा करने वाला होता है । इस अवसर पर किये गये गंगास्नान जन्यफल को हजारों अशवमेंध एंव सैकडों वाजपेय यज्ञों तथा समस्त पृथ्वी की एक लाख बार की गयी परिक्रमा से प्राप्त फल से भी बढकर बताया गया है । 
अशमेघ सहृस्रमाणि ,वाजपेयशतानि च,
लक्षं प्रदक्षिणा भूमें:,कुम्भ स्नानेन ततफलम्।    


हरिद्वार कुम्भ स्नान की तिथियां -
14-जनवरी 2010 (बृहस्पतिवार)********************  मंकरसंक्राति-    पहला स्नान
15-जनवरी 2010 (शुक्रवार) ************************मौनी अमवस्या-  दूसरा सनान
20-जनवरी 2010 (बुधवार)*************************बंसत पंचमी  -    तीसरा सनान
30 जनवरी 2010 (शनिवार)************************माघ पूर्णिमा   -    चौथा स्नान
12 फरवरी 2010  (शुक्रवार)************************महाशिवरात्रि    -   प्रथम शाही स्नान
15 मार्च     2010  (सोमवार)*********************सोमवती अमवस्या- द्वितीय शाही स्नान
16मार्च      2010  (मंगलवार)***********************नवसंवतारंग     -    पांचवा स्नान
24 मार्च   2010    (बुधवार)*************************रामनवमी       -      छठवा स्नान
30 मार्च  2010 (मंगलवार)*******************चैत्र पूर्णिमा/वैष्णव अखाडा स्नान -  सांतवा स्नान 
14 अप्रैल 2010 (बुधवार)**************************मेष संक्राति बैशाखी -   प्रमुख स्नान  
28 अप्रैल 2010 (बुधवार)**************************वैशाख अधिमास पूर्णिमा स्नान


                                       *********************
sunita sharma
(कुछ चित्र गुगल से साभार)

Wednesday, January 6, 2010

Wednesday, December 30, 2009

हरिद्वार........ कुम्भ नगरी भाग 3


हरिद्वार की ख्याति दिल्ली सल्तनत तक फैल चुकी थी यह सब आप पिछले भागों में पढ चुके है अधिक प्रसिद्धि ही क्षति का कारण बनने लगी 12वी सदी के बाद से ही यहां हमले होने लगे थे सर्वाधिक क्षति 1398 में तैमूर लंग के हमले के कारण हई इसी समय कनखल मायापुर की विनाशकारी ध्वंस एंव लूट लीला हई थी ।


सैयद-लोदी शासनकाल में यह तीर्थ सल्तनत की किरकिरी बना रहा पर शिवालिक श्रेणियों ने घने वनों ने इस तीर्थ पर आने विपदा से रक्षा की । रामानन्द के आगमन के बाद रामावत सम्प्रदाय और वैष्णव लहर जो चली उसमें वल्ल्भाचार्य की बैठक ने हरिद्वार को हरिमय बना दिया। उत्तराखण्ड यात्रा में यात्रियों,वैरागियों की अभूतपूर्व वृद्वि होने लगी । अकबर की सहष्णुता ने मानसिंह  को हरिद्वार में पैडीघाट तथा छतरी बनाने की प्रेरणा दी ।    


लंडौरा राज्य कायम होने पर कनखल में सुन्दर मंदिर बने मराठों ने रूहेलखण्ड ,दुनमाल को लूटा परन्तु 176ई0 में अहमदशाह अब्दाली से पानीपत का तीसरा युद्व हारने पर मराठों की छत्रछाया हटने पर पुन: रूहेलों के धावे होने लगे । 1785 में गुलाम कादिर ने हरिद्वार को लूटा । 1796 ई0 में पंजाब के सिक्ख सरदारों ने गुसाइयों से अनबन होने पर घुडसवारों के बल पर अन्तिम स्नान के दिन सो सन्यासी,वैरागी,गुंसाई नागा मार डाले ।1804ई0  में गोरखों का गढवाल पर अधिपत्य होने से हरिद्वार ,स्त्री, पुरूष दासों की बिक्री का एक बडा केन्द्र बन गया  ।

1855 में मायापुर से गंगा नहर निकाली गयी इससे मायापुर का पुन: विकास होने लगा ज्वालापुर समृद्व मण्डी बन गया । 1886 में लक्सर से व 1900ई0 में  देहरादून रेलमार्ग जुडने से यह तीर्थ नगर अधिक विकसित होने लगा । आज यह पूरे विश्व में प्रसिद्व है, 2010 कें महाकुम्भ की अगुवायी को तैयार है। 




सुनीता शर्मा





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यहां वीरभद्र प्रकट हुआ था ----- वीरभद्रेश्वर मंदिर (ऋषिकेश)

पिछली पोस्ट में मैने ऋषिकेश के वीरभ्रद्र क्षेत्र का इतिहास बताया था पर इस पोस्ट में यह बता दू कि क्यो इस क्षेत्र को वीरभद्र के नाम से जाना ...