Saturday, January 23, 2010

साधक की काव्य-साधना

blogvani.com पर श्री अरुण खण्डेलिया का आलेख पढा. वर्तमान के सर्वव्यापी निराशाजनक दौर में यह आलेख आशा की किरण देखना चाहता है. अरुण को निराशा दिखती है, और वह आशा का आकाँक्षी है. यह निराशा के दर्शन होना ही भ्रम है. निराशा वास्तव में है नहीं. अस्तित्व में नकारात्मक भावों का कोई स्थान ही नहीं, उनका स्तित्व ही नहीं. यही भाव बन गये इस ट्टिपणी में-

चाह से राह बने और श्रम से मिले सफ़लता पूरी.
अरुण ने दिया सूत्र, बात यह नहीं अधूरी.
नहीं अधूरी बात, किन्तु क्यों दिखे निराशा?
जीवन को समझो बन्धु! आशा ही आशा.
कह साधक छोङो अपनी, समझो अस्तित्व की चाह.
श्रम से मिले सफ़लता पूरी, चाह से बनती राह.

फ़िर मैं अनायास ही ज्ञानवाणी पर आया. वहाँ सँवाद बनाता एक आलेख पढा, लेखक अपने लेख पर ट्टीपणी चाहता है. ट्टिपणी से ही पता चलता है के उसके शब्द सार्थ है भी या नहीं. तत्काल भाव बने और यह ट्टिपणी छोङकर आगे बढ गया.

सच कहा है ट्टिपणी,जरिया-ए-सँवाद.
सारे ब्लागर सहमत हैं, इस पर नहीं विवाद.
इस पर कहाँ विवाद, किन्तु हे बन्धु जान लो.
सार्थक हो सँवाद, बात इतनी सी मान लो.
इस साधक ने जो भी कहा है, सच कहा है.
सँवादों का मार्ग ट्टिपणी, सच कहा है.




9-जनवरी को अपने हैद्राबाद प्रवास की उपलब्धियों का खाका बनाने का मन हुआ. मेरा सारा काम इसी लेपटोप पर होता है, और इसमें कुछ भी गोपनीय नहीं है, आप भी देखें…
गीता-चर्चा सत्र में श्रीराम से परिचय हुआ. २७ दिसम्बर को उन्होंने लेब में बिठाकर अनुसारका पर खाता खोल दिया. अगले दिन स्नेह के साथ लगभग एक घंटा सिखाया. स्नेह उसी दिन अपनी सहेली के यहाँ चली गई, मेरे लिये सीखने-समझने की प्रेरणा बनकर.
विनीत जी का मार्ग-दर्शन, संस्कृत व्याकरण को आधार बनाकर अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद करने का सोफ़्टवेयर बन रहा है, उसमें मेरी भागीदारी स्वीकारी गई, गौरव का अनुभव होता है. बहुत कुछ सीखने को मिलेगा.
काम शुरु किया तो अदितीजी, सुखदा, शीतल और दीप्तीजी का प्रसन्नता भरा सहयोग मिला. सुखदा अस्वस्थ लगी. एक और बुजुर्ग महिला हैद्राबाद से नित्य आकर अनुसारका पर काम करती है, निष्ठा अनुकरणीय है. उनसे तेज चलना तय है.
नौमान की सहायता, रोहित जी की मित्रता, ज्योतिष सुमन और चन्द्रिका से जुङाव, बैजू नन्दा ने ओडियो पर चलता काम सिखाया…. अभिजित ने मेरी नईआशा देखी तो आश्वस्त हुआ कि यहाँ से बहुत कुछ मिलेगा. फ़िर ऋषभ और देवांश- सुशान्त का सहयोग, हर तरफ़ से जैसे मेरे लिये हाईटेक होनेकी सङक तैयार हो रही है.
नौमान का सम्पर्क- हिन्दी से दक्षिण भारतीय भाषाओं को सीखने का औजार होगा. बैजू जी का ’रवि’ अभी प्रारंभिक अवस्था में है, दो दिन उसपर अभ्यास किया, उसके उचारण को बेहतर बना सकता हूँ… समय साध्य है.
रोहित बार-बार समझा रहे हैं कि मेरी क्षेत्र लेखन है, यह तकनीक नहीं. वैसे भी तकनीक मानवीय दिमाग से अभी काफ़ी पीछे है. इसे जन-जन सुलभ बनाने की चुनौती है
अश्यन सामरा ने पाली-संस्कृत वाक्य रचना बताई, मुझसे पूछा. नवज्योति सिंह से मिलाया.
ईशान नाम से दो बच्चों ने धन पाने की उम्मीद में सहयोग दिया. तीन बार बैठे. वही कुछ सिखाया, जो पहले ही नौमान ने सिखा दिया था. अब वे सहीआशा को सजाने का काम २००० में करने को तैयार हैं, मेरा मन करता है कि स्वयं करूँ. रूपया उनको सुशान्त के माध्यम से देना है.
कमरे में ज्योतिश, ऋषभ, बैजू, श्रीराम, ईशान, अशयन आदि आये. वरुण की सहायता सदा अधूरी रही, बिचारा बास्केट बाल कोर्ट में टांग तुङवा बैठा है.
सोनल के नृत्य का एक टुकङा मिला, अब तक नहीं देख पाया हूँ. बेशक ४ हिन्दी फ़िल्में गटक गया.
बाकी काम-
१- सुशान्त एक जीनीयस से मिलायेगा.
२- राजीव संगल साहब के पास अपना मन रखना.
३- अपने ब्लाग पर आडियो-वीडीयो चढाना, आवश्यक उपकरण खरीदना.
४- अनुसारका पर एक पृष्ठ पूरा करना.
५- अनुसारका का हिन्दी अनुवाद करके देना.
६- बैजू से आगे के प्रोजेक्ट पर चर्चा, अपनी पुस्तकों का कोर्पस बनाना…. उस पर फ़ोनेटिक्स का प्रयोग करना.
और वे जीनीयस हैं अनिलजी. स्वयं मेरे कमरे में आये. अत्यन्त दुबली-पतली काया, चमकती आँखे, खद्दर के बिना आयरन हुये कुर्ता-पैजामा. उनके लिये यह कुण्डली बनी-

प्यासे ने अमृत पाया, अंधे को मिली ज्यॊ आँखें.
बिन माँगे मिल गये अनिलजी, ऊङूँ लगाकर पाँखें.
ऊङूँ लगाकर पाँखें, ओडियो और वीडीयो.
अभी सिखा देंगे तुझको, मन लगा सीखीयो.
सुन साधक करना है सारा काम स्वयं ने.
अंधे के मिली आँख, अमृत पाया प्यासे ने.-

उनके जाने के बाद फ़िरसे ब्लाग यात्रा चली. भारतीय नागरिक ब्लाग पर तीन ट्टिपणियाँ और अविसाश जी के नुक्कङ पर बनी एक ट्टिपणी कहकर आज विराम लेता हूँ.

भारतीय नागरिक बताओ, कहाँ तुम्हारा देश?
यह भूमि इण्डिया बनी, अब कहाँ है भारत देश?
कहाँ है भारत देश,ज्ञान-आलोक कहाँ है?
सारे जग को कुटुम्ब बनादे, वह जजबात कहाँ हैं?
कह साधक मुझको उस देश का पता बताओ.
कहाँ तुम्हारा देश, भारतीय नागरिक बताओ.

कहीं ना कुछ देना ना लेना, सह-अस्तित्व है मित्र.
समझें नियम जियें उत्सव से, सही बनेगा चित्र.
सही बनेगा चित्र, उदासी हट जायेगी.
जीवन में सुख ही सुख, पीङा मिट जायेंगी.
कह साधक कवि समझे हो तो समझा देना.
सह-अस्तित्व है मित्र, ना कुछ भी लेना-देना.

हर शाख पे उल्लू बैठे हैं, तुम एक से ही घबराते.
हे भारतीय नागरिक सुनो, तुम व्यर्थ में ही चकराते.
व्यर्थ ही क्यों चकराते,काम करो कुछ ऐसा.
शाखाओं संग उल्लू को बिसरा दे जैसा.
कह साधक आना होगा अब नई राह पे.
घबरायेंगे वे सब उल्लू, बैठे हर शाख पे.


अविनाशजी,, भगवान से बात
मेरेबिन ’वो’ नहीं, नहीं ’मैं’उसके बिन रह सकता
दोनो साथ-साथ, केवल अब इतना ही कह सकता.
इतना ही कह सकता भगवन! क्यों भटके हर मानव
साथ-साथ रहने का कौशल क्यों ना माने मानव?
कह साधक कविराय, अधूरी चर्चा मुझ बिन.
मैं इसके बिन रह नहीं सकता, यह मेरे बिन.

गंगा किनारे बैठ कर साधना का मन करता है, अतः यह पोस्ट वहीं पढी जाये. –
साधक उम्मेदसिंह बैद sahiasha.wordpress.com

प्रयोजन

कहानी- प्रयोजन


गौशाला में ब्रह्म-मुहुर्त में बाँसुरी का मीठा सुर सुनने के लिये आस-पास के सभी पेङोंसे पक्षियोंका झुण्ड एकत्र आ जाता. उनका कलरव नये बछङे बङे मनोयोग से सुनते, मस्त चैकङियाँ भरते. उनकी चौकङियों को देखकर पेङों-झाङियों के झुरमुटों से झांकते हिरण और खरगोश चम्चल-चपल हो उठते. तितलियाँ-भौंरे आदि का नर्तन-गायन चलता. और कलियाँ चटक कर फ़ूलने को मचल जातीं.
आइ.आइ.आइ.टी. के नये बैच के छात्रों में गौसेवा का बङा उत्साह रहता है. गौसेवा के निमित्त इक्कीस छात्रों का दल हर पखवाङे बदला जाता है ताकि नये आये सभी ५०० छात्र यह अवसर पा सकें. ६ जन गोबर उठाकर गैस-संयत्र में डालने के लिये बनी प्रक्रिया में जुटते हैं, उनके जिम्मे ही संयंत्र में से निकली स्लरी के वितरण की जिम्मेदारी रहती है. दो जन गौ-मूत्र एकत्र करके उसे औषधालय पहुँचाते, जहाँ उन्हीं को औषधि-निर्माण आदि कार्य में अगला एक घंटा नियोजित करना है. ६ जन गायों को चारा आदि देकर दूध निकाल लेते हैं. साठ गायों का लगभग पाँच सौ लीटर दूध कम्प्युटर में व्यवस्थित रूप से दर्ज होकर छहों रसोई घरों में पहुँच जाता है. जो छात्र अब तक वंशी बजा रहा था, वह अपने प्रिय बछङों की देखभाल में अन्य दो साथियॊ के साथ जुट जाता है. बचे छात्र गौशाला को धो-पौंछ कर साफ़ करते हैं, तब तक सूर्य देवता की ऊषा किरणें आकर पूरी गौशाला को चमका देती हैं. अब तक गौशाला सहित पूरे परिसर के बल्ब इन्हीं सूर्य द्वता की रोशनी से ही रोशन थे. ऊर्जा के सही स्रोतों पर इस संस्थान ने पिछले दस वर्षों में असाधारण प्रगति की है. हैद्राबाद सहित देश के सौ शहरों और एक लाख गाँवों में अब ऊर्जा की जरूरतों के लिये न कोयला चाहिये, न पेट्रोल.


आइ.आइ.आइ.टी. के प्रत्येक छात्र को प्रतिदिन एक किलो दूध, पीने को मिलता है. दही-छाछ और घी की कोई कमी नहीं, आवश्यकतानुसार यहाँ की गायों को दूहकर बना लिया जाता है. गोबर-गेस संयन्त्र से निकलने वाली गेस ही परिसर की रसोई के लिये पर्याप्त है, फ़िर आवश्यकतानुसार सौर-ऊर्जा भी प्रचुर संग्रहीत रहती है. छात्र अपने-अपने कमरों की दीवारों पर हर पखवाङे गोबर स्लरी का लेपन कर लेते हैं. इसी संस्थान ने अन्तरताने के जो नये कोड तैयार किये हैं, उनका दुष्प्रभाव रोकता है यह लेपन. छात्रों के भोजन लायक सब्जियाँ और सभी फ़ल इसी परिसर में उपलब्ध हैं. हर छात्र की अपनी-अपनी सब्जी की बगिया है. रसायनिक खाद का चलन कबका बन्द है, अब तो सारी कृषि ही गौ-केन्द्रित हो गई है. बाहर से जो अनाज-वस्त्र आदि मँगाने होते हैं, उनके बदले गौशाला की औशधियाँ और घी का विनिमय ही पर्याप्त हो जाता है. संस्था के कुलपति का संकेत रहता है कि संस्थान स्वावलम्बी रहे. स्वावलम्बन के कई प्रकल्प संस्थान के छात्रों के निर्देशन में देश भर में चलते हैं. अन्तरताने पर ही सारा प्रशिक्षण-नियंत्रण हो जाता है, किसी को यात्रा करने की न तो आवश्यकता होती है, न व्यर्थ का शौक.
परिसरमें एकभी व्यक्ति वैतनिक नहीं है. श्रम-विनियोजन की स्वीकृति समाज में बनने लगी है. यह संस्थान जागृत कुलपति की छत्र-छाया में परिवार की तरह जागृति-क्रम में अध्ययन रत है. परिसर का चप्पा-चप्पा किसी न किसी सदस्य के देखरेख में सजा-संवरा रहता है. कुलपति सहित सभी समर्थ सदस्य श्रम-नियोजन करते हैं. सुचिन्तित और सुव्यवस्थित रूप से प्रतिदिन लगभग चार हजार घंटों के श्रम से सबकी आवश्यकता से अधिक का उत्पादन संस्थान में हो जाता है. धरती के साथ श्रम के सिवा यहाँ अनेक प्रकार की मशीनों का निर्माण और उनपर नये शोध का क्रम चलता है. इस सबसे अर्जित आय मुद्रा रूपमें जमा रहती है, और उसीसे उच्च तकनीकी शोध के लिये आवश्यक सामान मंगाया जाता है. शिक्षा-संस्कार को अर्थार्जन से ऊपर रक्खा गया है. न छात्रों को फ़ीस देने की आवश्यकता है, न कोई प्राध्यापक वेतन स्वीकारता है. शोषण-जनित सारी व्यवस्थायें बदल गई हैं. जागृत मानवों के आचरणका अनुसरण-अनुकरण करतेहुये स्व का अध्ययन करना इस संस्थान के प्रत्येक सदस्य का लक्ष्य बन गया है, इस क्रममें परिवार भाव और स्वावलम्बन की सिद्धि बन गई है.
आज साप्ताहिक सम्मेलन है, कुलपति जी सबको सम्बोधित करेंगे. अतः सभी जन अपना-अपना काम समेट कर मिलन स्थल पर एकत्र आ गये. कुलपति जी के आने से पूर्व संस्था सचिव इस संस्थान के विकास-क्रम और सदस्यों के जागृति-क्रम का ब्यौरा रखते हैं. पिछले सप्ताह सन २००९ तक का विवरण आ गया था, आज इसकी अंत्तिम कङी में २०१० से लेकर वर्तमान २०२० तक का विवरण आना है. सभी जन उत्सुक हैं सुनने के लिये. सचिव ने बताया, -
“एक दशक बीत गया उन बातों को. आज तो वह सब एक बुरा सपना सा लगता है, किन्तु तब हममें से कई लोग उस भयंकर दौर में स्वयं भी कर्ता के रूप में शामिल थे. जैसे मैंने पिछले सप्ताह आपको बताया था कि भारत में प्रान्तवाद का अन्तिम चरण तेलंगाना आन्दोलन के रूप में २००९ के अन्तिम दिनों शुरु हो चुका था. २०१० में उसे लेकर देश में बङी उथल-पुथल हुई. सैंकङों आत्म-हत्यायें, हज्जारों का खून बहा, पढाई-लिखाई सब चौपट हुई. अपना यह संस्थान भी सरकारी बेवकूफ़ी का शिकार बना. चूँकि आन्ध्र के शेष सारे संस्थानों में सेमिस्टर रद्द करने पङे थे, तो लोक-भावना का ध्यान रखते हुये हम पर भी आदेश लागू हो गया, जबकि यहाँ के सारे छात्र बहुत मनोयोग से शोध में लगे थे. इस हालत में आधे से ज्यादा छात्र विदेश चले गये, शेष सरकारी सिस्टम के विरोध में कूद पङे. संस्थान ने उसी समय सरकारी अनुदान लेना बन्द कर दिया, स्वावलम्बन और समाज के सहयोग से चलाने पर चिन्तन चला. स्वावलम्बन के दिशा में तभी किसी ने १० दुधारू गायें भेंट की थी. आज हमारी गौशाला में सौ से ज्यादा गायें, आठ साँड, साठ बैल और इतने ही बछडे हैं. गाय के गोबर और मूत्र ने यहाँ की माटी में जेवन्तता भर दी. पहले फ़ल-फ़ूल नहीं थे, यह सारी गाय के साथ जुङे रचना है.
२०१० के नवम्बर महीने में चीन की चालाकी और पाकिसतानी हैकरों की मदद से देश का अर्थ-तन्त्र चौपट हो गया. रिजर्व बैंक सहित सारे अर्थ- केन्द्र दिवालिया हुये. देश में चीनी मुद्रा छा गई.अपने यहाँ का बैंक भी तभी बन्द हुआ. चीन और पाकिस्तान ने भारत की सरकार के अस्तित्व पर ही प्रश्न खङा कर दिया. उस समय इस संस्थान के कुछ द्दिग्गजों ने पलट वार करते हुये पूरी दुनियाँ के दिमाग पर काबू पाने के प्रयत्न शुरु किये हैकिंग की मदद से . शिक्षा-तन्त्र में सैंध मारी, और दूरदर्शी बनकर उन-उन देशों की स्थानीय मान्यता के अनुसार परिवर्तन का पैटर्न बनाकर उसमें मध्यस्थ-दर्शन के महत्वपूर्ण सूत्र पिरो दिये. इसने अपना असर दिखाया. इस प्रकार चीन, पाकिस्तान और ब्रितैन के छात्रों ने अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं के राजनैतिक आधार पर निर्धारण पर प्रश्न उठाने शुरु कर दिये. पाकिस्तान अपने अन्तर्विरोधों के कारण पहले टूटा, २११२ आते-आते दोनों सेनायें परस्पर गले मिल रहीं थी. बांगलादेश के अस्तित्व पर पानी का संकट आया, और उस संकट ने उसे भी भारत-चीन के साथ मिलकर रहने का रास्ता दिखाया. इस बङे परिवर्तन ने दुनियाँ के भूगोल का नक्शा बदल दिया. अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की अनेक सम्स्थाओं के वजूद की नीवें हिलने लगी. बदलाव आने लगता है तो सारी घटनायें उसमें सहयोगी बन जाती हैं. उसी समय चीन में एक बङा आतंकवादी हमला हुआ. लाखों लोग मारे गये. अमेरिका ने अल-कायदा पर इस घटना का आरोप लगाया, तो पाकिस्तान की सबसे ताकतवर संस्था आइ.एस.आई. ने खुलासा किया कि अमेरिका ने ही यह काम करवाया है. सही के लिये आम आदमी के मन में स्वीकृति का भाव होता ही है, तो अमेरिका के लोगों ने अपने सरकारी सिस्टम के विरुद्ध आवाज उठाई. इस आगमें पेट्रोल का काम किया हैती के एक कम्प्युटर-इंजीनियर ने. उसने कुछ ऐसा किया कि मीडीया का चेहरा बदल गया. अमेरिकी मीडीया के मानस को बदलने का काम बहुत बङी सफ़लता थी. मीडीया का लक्ष्य अब पैसा ना होकर सत्य का प्रचार-प्रसार हो गया. इसने धन-संग्रह की सोच पर आक्रमण किया.आम आदमी की सोच में से धन-संग्रह की चाहत को निकालने का काम मीडेया ने किया. सबसे बङा आघात लगा वर्ल्ड-बैंक को. तभी एक अर चमत्कार हुआ. लङखङाते अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष पर स्विस बैंकों ने लात मार दी. स्विस-बंकों ने गोपनीयता कानून को अनावश्यक बताते हुये खारिज कर दिया.गोपनीयता कानून के टूटते ही भारत सहित अनेक देशों का अकूत धन वापस अपने देश में लाने का मार्ग साफ़ हो गया. एसिया महाद्वीप में सामाजिक/राजनैतिक/आर्थिक स्तर पर व्यापक मन्थन चल ही रहा था कि २०१४ में एक एक करके आठ जन पूर्णतः जागृत हो गये. उनमें से एक अपने संस्थान से भी थे, मगर जागृति से पूर्व ही पद-मुक्ति ले चुके थे. इन जागृत मानवों का प्रभाव सर्वत्र फ़ैलने लगा. सारे देशों में स्थानेय कारणों से तत्कालीन व्यवस्थायें टूटने लगी थी. नई व्यवस्था में मानव-केन्द्रित अस्तित्व मूलक दर्शन केन्द्र में आ गया. धर्म-सम्प्रदाय की दीवारें टूटने लगीं. धन के संग्रह की मूर्खता आम आदमी को समझ में आने लगी हैं. इस परिवर्तन में उन युद्धों की भी सकारात्मक भूमिका है, जिनमें मानव जाति को अनेक घाव मिले. किन्तु इसी पीङा ने मानव को सही की खोज में प्रेरित किया. आज पूरा अशिया एक हो चुका है. सीमाओं के आर-पार आवा-जाही खुल गई, सेनाओं की आवश्यकता ना रही. पूरे एशिया में खुशहाली है. अन्य देशों में यहाँ के लोग जागृति-क्रम में सहयोग दे रहे हैं. हमारा यह संस्थान…. नहीं … इसे संस्थान कहना ठीक नहीं होगा…. हमारा यह परिवार भी सार्वभौम अखण्ड समाज रचना में अपनी यत्किंचित भूमिका निभाने में समर्थ हो, इसी हेतु हम प्रयत्न-रत हैं. यहाँ मैं अपना एक छोटा सा संस्मरण जोङना चाहता हूँ. तब मैं यहाँ प्रथम वर्ष का छात्र था. शायद २०१० के जनवरी महीने की बात है. बाहर से आये किसी मेहमान ने इसी मैदान में फ़ुटबाल खेलते बच्चों को देखकर कहा था कि इस खेल का प्रयोजन क्या है? इस शारीरिक श्रम के बदले पैदा क्या हो रहा है?
यह सुनकर मैं चौंका था. यह आदमी तो स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों को भी नकार रहा है. बादमें पता चला कि उस आदमी ने गीता पर भी प्रश्न खङे किये थे. उनसे संस्थान का ही एक छात्र दल बहस करने लगा, तो उसने सीधा कहा कि इतने श्रम से इन सबपर होने वाला शिक्शा और खाने-पीने का पूरा खर्च निकल सकता है. कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज हम सब मिलकर उसे साकार कर रहे हैं. शुभ विचार की शक्ति और परिणाम स्पष्ट हैं.
अब मैं कुलपति महोदय से मार्ग-दर्शन के लिये निवेदन करता हूँ.”


ठीक समय पर कुलपति जी पधारे. उन्होंने अपना भाषण शुरु किया, -
“अस्तित्व में दुख की रचना नहीं है. सारा दुःख और समस्या भ्रम के कारण है. सबसे पहला और सबसे बङा भ्रम यह है कि मैं शरीर हूँ. शरीर में मैं का आरोपण मानव को नये-नये प्रकार के भ्रमों मे भटकाता है, चक्कर लगवाता है. भारतीय मानस इसी को चौरासी लाख योनियों का चक्कर कहता है.
मानव इस अस्तित्व में ज्ञान की इकाई है. मानव का प्रयोजन है जानना. हर मानव सब कुछ जान लेना चाहता है. ज्ञान मानव मात्र का स्वभाव है. हर मानव सब कुछ जान सकता है. मान्यता बाधा बनती है. मान्यताओं से मुक्त होने के लिये ही आप सब यहाँ अध्ययन रत हैं. अपनी समझ बनाने की जिम्मेदारी खुद अपनी ही है, सह-अस्तित्व तो है ही…. जागृति में हर घटना सहयोगी होती है. स्वीकृति ही सुख है, समाधान ही सुख है. निरन्तर सुख पाना हर मानव का अधिकार भी है, कर्तव्य भी. यही मानव तन का प्रयोजन है. इसी देह-यात्रा में आप चिर-लक्ष्य की प्राप्ति करें, यही शुभ-कामना है.”
- साधक उम्मेदसिंह बैद  

Friday, January 22, 2010

महामण्डेश्वर बने दाती महाराज




महामंडलेश्वर पटटाभिषेक कार्यक्रम,कुम्भनगरी हरिद्वार।
कार्यक्रम का संचालन मंहत वासुदेव गिरी तथा मंहत रवींद्रपुरी ने किया।






हिंदू धर्म और संस्कृति का प्रचार प्रसार करने के लिए अखाडे महामंडलेश्वर की नियुक्ति करते है ,इसके लिए संत का विद्वान होना तो आवश्यक है ही साथ ही हिंदू धर्मऔर संस्कृति का प्रचार प्रसार करने की क्षमता भी होनी चाहिए। महामंडलेश्वर बनने के लिए संत का विद्वान होने के साथ ही सामाजिक व आर्थिक स्थिति भी देखी जाती है । इन्ही सब बातों को ध्यान में रखते हूए बंसत पंचमी के दिन शनिधाम दिल्ली के परमाध्यक्ष मदन महाराज दाती को महानिर्वाणी अखाडे के महामंडेलेश्वर की उपाधि से विभूषित किया गया । उन्हे श्री महामंडलेश्वर निज स्वरूपानन्द पुरी जी महाराज के नाम से जाना जायेगा ।शनि की उपासना कर उन्होने ख्याति पायी है।

all photograph's by Anoop Khatri chief producer TV Eyes News Network
     presented by sunita sharma freelancer journalist





गंगा-गीता-गौ-गायत्री के लिये आशाओं के द्वार यहाँ भी!

कोपेन हेगन की असफ़लता ने
धरती के अस्तित्व पर बने प्रश्नों को
कुछ और विकराल बनाया है,
कुछ नये प्रश्न खङे कर दिये हैं.


समाधान के लिये
भारत केन्द्र में है- सदा से रहा है.
भारत अर्थात वसुधैव कुटुम्बकम….
भारत अर्थात सर्वे भवन्तु सुखिनः….
भारत अर्थात सर्वं खल्विदं ब्रह्म…..
भारत अर्थात गौ-गंगा-गीता-गायत्री….
भारत अर्थात सबमें एक के दर्शनों की साधना…
भारत अर्थात दायित्व-बोध!
भारत अर्थात मैं को विराट के साथ
एकाकार देख पाने की साधना !


इस साधना क्रममें
स्व के अध्ययन-क्रममें
मैं गत एक महीने से हैद्राबाद में हूँ.
हैद्राबाद- जो तेलंगाना आन्दोलन का केन्द्र है.
रोज-रोज उपद्रव, खून-खराबा
छात्रों द्वारा आत्म-हत्यायें
जलती बसें- जलते सार्वजनिक भवन-सम्पत्तियाँ
अस्त-व्यस्त और परेशान जन-जीवन
हताश-निराश होती व्यवस्थायें
हथियार डालते राजनेता….


आन्दोलन अब राजनेताओं के हाथ से निकल चुका है.
छात्र-शक्ति चला रही है इसे…
उस्मानियां संस्थान आन्दोलन का केन्द्र
छात्रओं द्वारा आत्म-हत्यायें
आग में पेट्रोल का काम कर रही हैं
तीन विश्व-विद्यालयों के सेमिस्टर रद्द हो चुके हैं
सारे दलों के विधायक इस्तीफ़ा देकर ही
अपनी जान बचा पा रहे हैं.
कोई नहीं जानता
कि यह ऊँट किस करवट बैठेगा!


इन सबके बीच
मैं एक प्रतिष्टित शिक्षा-संस्थान में बैठा हूँ.
अन्तर्राष्ट्रीय-सूचना-संचार-तकनीकी-संस्थान
अंग्रेजी में iiit-hydrabad.


आन्दोलन की आग इसके द्वार पर भी आई थी.
छात्रों की उत्तेजित भीङ को गेट पर ही रोक दिया गया.
क्योंकि, सिक्योरिटी के मनमें
संस्था-अधिपति के प्रति विश्वास था…
संस्था-अधिपति को अपने साथियों-सहयोगियों पर
और उनको अपने छात्रों पर भरोसा था
यह विश्वास- यह भरोसा
एक अभेद्य दीवार बन गया
कोई उपद्रव इस पवित्र परिसर में ना घुस सका.


हाँ, यह परिसर पवित्र है!
६८ एकङ में फ़ैला परिसर,
इतने ही तकनीकी-शिक्षा-विभाग
लगभग १२०० जन…. छात्र-प्राचार्य और कर्मचारी
सब किसी न किसी प्रोजेक्ट पर न्यस्त और व्यस्त.


इस तकनीकी व्यस्तता के बीच
जीवन के स्पन्दनों को महसूसने का
उनके साथ जीने का सुख भी पाया मैंने.
नित्य की गीता-चर्चा हो,
मंगल-रवि की जीवन-विद्या चर्चा
योग-कक्षा हो, या खेल के उमंगित मैदान
सब तरह हरियाली ही हरियाली है.
सबको यह चिन्ता भी है
कि इतनी हरियाली के बावजूद
चिङिया का घोंसला क्यों नहीं दिखता!?
तितलियाँ, भँवरे और पतंगे क्यों नहीं दिखते?
और क्या तभी फ़ूल भी नहीं खिलते?
और इस तेजी से बढती जाती ई-मेल प्रणाली से
मानव को क्या क्या भुगतना पङ सकता है?
और इसका लोक-व्यापीकरण कैसे हो?
जन-जन के हित में इस विधा को कैसे मोङा जाये!?
कहीं इसने मानवी दिमाग में
आत्म-संहार का वायरस तो नहीं भर दिया?
कहीं कोपेन हेगन की असफ़लता के पीछे
वही वायरस तो नहीं???

यहाँ की जागृत चेतना
स्वयं से प्रश्न कर रही है…
और भारत इसी रास्ते बनता और बचता है.
भारत बचे
तो गीता-गंगा-गायत्री-गाय और ज्ञानारधना भी बचे!
भारत बचे तो धरती भी बचे !
भारत बचे तो धरती भी बचे!!


साधक उम्मेदसिंह बैद

Tuesday, January 19, 2010

ऋषिकेश का भरत मंदिर ..........बंसत पंचमी पर विशेष




कुम्भ नगरी हरिद्वार से लगभग 25 किमी की दूरी पर ऋषिकेश तीर्थ है जिसकी  पौराणकिता व ऐतिहासिकता पर मै पिछली पोस्टो ऋषिकेश एक तपस्थली के अंतर्गत काफी विस्तार से बता चुकी हूं।इसी पावन तीर्थ में  प्राचीन भरत मंदिरहै। यह मंदिर अपने नाम के अनुकुल दशरथि पुत्र भरत का न हो कर भगवान विष्णु का है। ऋषि केश तीर्थ का  प्राचीन नाम हृषीकेश था वराह पुराण के अनुसार ऋषि भारद्वाज के काल में ही रैभ्य मुनि हुए वह भारद्वाज ऋषि के मित्र थे । रैभ्य मुनि के घोर तप से प्रसन्न हो कर स्वयं भगवान विष्णु ने आम के पेड पर बैठ कर मुनि रैभ्य को दर्शन दिये ,भगवान विष्णु के भार से आम का वृक्ष क्षुक कर कुबडा हो गया । इसी से  जगह का नाम  कुब्जाम्रक भी पडा । स्कन्द पुराण के अनुसार भगवान विष्णु ने मुनि रैभ्यको यह वरदान दिया कि मै कुब्जाम्रक र्तीथ में लक्ष्मी सहित सदैव निवास करूंगा  क्योकि अपनी समस्त इन्द्रयों हृषीक  का जीत कर तुमने मेरे (ईश के) दर्शन कर लिए है,अत: यह स्थान अब हृषीकेश के नाम से जाना जायेगा । कुब्जाम्रके महातीर्थ वसामि रमयासह,
हृषीकाणि पुराजित्वा दर्श ! संप्रार्थितस्त्वया ।
यद्वाहं तु हृषीकशों भवाम्यत्र समाश्रित:
ततोस्या परकं नाम हृषीकेशाश्रित  स्थलम्।। 
स्कंद पुराण के अनुसार भगवान विष्णु महामुनि पारद को ऋषिकेश की महत्ता बताते हुए कहते है कि -कृते वराहरूपेण त्रेयायाम् कृतवीयर्यजम्
                 द्वापर वामनं देवं कलौ भरतमेव च 
                          नमस्यंति महाभाग भवेयुर्मुक्ति भागिन
अर्थात सतयुग में वराह,त्रेता में कृतवीर्य,द्वापर में वामन और कलयुग में जो भरत के नाम से  मेरी पूजा अर्चना करेगा उसे नित्य मुक्ति प्राप्त होगी ।

ऋषिकेश तीर्थ का महत्व शहर के बीचों बीच स्थित भरत मंदिर से है ।भरत मंदिर अत्यतं प्राचीन है,समान्य जन इसे दाशरथि भरत का मंदिर समझते है क्योकि इन्हे ऎसी संगति भी दिखायी देती है थोडा आगे लक्ष्मण मंदिर है लक्ष्मण झूला है,शत्रुघन मंदिर है।लेकिन यह विष्णु भगवान का मंदिर है।इतिहासविदों का मानना है कि ललितादित्य मुक्तापीड के हरिद्वार तथा ऋषिकेश में मंदिर निर्माता होने की संभावना से इंकार नही किया जा सकता यह महान निर्माता सूर्य व विष्णु का उपासक था ।इस सम्बन्ध एक अनुश्रुति यह भी मिलती है कि कश्मीर के राजा ने ही पूर्व काल में भरत मंदिर को बनवाया था बाद में वही के किसी राजा ने इसका जीर्णोद्वार  करवाया था ।  बारह से नौ श्वेत गुम्बदों और पाषाण भित्ति से बने भरत मंदिर के अंदर काली शालिग्राम की शिला की पांच फूट ऊची हृषीकेश नारायण की चतुर्भुजी प्रतिमा है । इसका पुनर्रूद्वार बारहवी शती में हुआ ।  
यही श्री हृषिकेश भगवान  भरत महाराज है । अब से 121 वर्ष पहले आदि शंकराचार्य जी ने इस मंदिर की मुर्ति की पुन: प्रतिष्ठा की । तुलसीदास रामायण अनुसार विश्व भरन पोषण करजोई ,ताकर नाम भरत अस होई
अर्थात विश्व का पालन पोषण करने वाले ऋषिकेश भगवान भी भरत जी शंख,चक्र,गदा ,पदम को धारण करने वाले भगवान विष्णु ही है ।      
कुछ इतिहासकार  मानते है रागपित्त से पीडित महीपत शाह, कुमायूं पर आक्रमण करने के विचार से जब हरिद्वार कुम्भ 1628 ई0  में भरत मंदिर के मंडप में दर्शनार्थ पंहुचा किन्तु भ्रान्ति चित्त से उसे लगा कि मुर्ति उसे क्रुद्व नेत्रों से देख रही है । उसने मूर्ति के नेत्रों को  उखडवा दिया यह कहकर हम तो आपके दर्शनों को आये है ओर तुम हमे क्रुद्व नेत्रों से देख रहे हो । राजा ने शायद यह समझा कि आंखे रत्न जडित है पर कांच की पा कर पुन: यथा स्थान लगवा  दिया । 
 मंदिर की परिक्रमा कर बद्रीनारायण के दर्शन का पुण्य मिल जाता है । मंदिर का वास्तु शिल्प उडीसा वास्तु शिल्प के समान है मंदिर की बाहरी दीवारों पर अंलकरण है और मूर्तियां उकेरी हई  है जो समय के प्रभाव के कारण या मानव प्रहार से खंडित किये जाने की संभावना है बाहर की मूर्तियां ढाई फूट के आकार की शिलांखडों से निर्मित सुदृढ भित्तिकाओ पर जडी हुई है । इन भित्तिकाओ की मोटाई  सात से आठ फीट बताई  गयी है ।मुख्यमुर्ति हृषिकेश विष्णु की है ।मंदिर के दायें परिक्रमा पंथ में पातालेश्वर  महादेव  है ।शिव का यह मंदिर ऋषि केश के  प्रमुख मंदिरों में से एक है । इसकें अधोतल में एक दर्शनीय शिवलिंग भी है जो पतालेशवर नाम को सार्थक करता है ,यही से प्राचीन मार्ग की संभावनायें मानी जाती है  


प्रति वर्ष बंसत पंचमी को यहां विशाल मेले का आयोजन होता है वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीय में  108 परिक्रमा करने वाले व्यक्ति को बद्रीनारायण के दर्शनों का लाभ व महत्ता की प्राप्ति होती है । 


सुनीता शर्मा

Thursday, January 14, 2010

some moments with Ganga



























































गंगा के प्रति विदेशियों के मन में भी आपार श्रद्वा व विश्वास दिखलाई पडता है या फिर माहौल से अविभूत हो जाते है। 

Wednesday, January 13, 2010

. बूमरैंग

बारिश है. लगभग ग्यारह बजे शुरु हुई. अचानक याद आया कि इन बीस दिनों के प्रवास में यह दूसरी बार हो रही है…. दोनों बार बारिश से पूर्व देखा प्रकृति का एक मजेदार नजारा याद आ गया. अपनी भाषा है प्रकृति की, अपने नियम हैं, अपने कायदे-कानून. और उन नियमों - कायदों का उल्लंघन पलट कर मारता है, प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने वाला अपने-आप दंड पा जाता है. जैसे कोई अनाङी हाथों से होता बूमरैंग. बूमरैंग शब्द को यहाँ जिस अर्थ में प्रयोग कर रहा हूँ, वह बता देना ठीक रहेगा, वरना शायद समझ की गाङी यहीं अटक गई, तो आगे प्रकृति के नियमों को मानने/स्वीकारने में दिक्कत आ सकती है. एक ऐसा शस्त्र जो प्रहारकर्ता पर ही पलटकर प्रहार कर दे, और बचने का कोई उपाय भी ना हो. जैसे वर्ल्ड-ट्रेड-सेन्टर का ध्वस्त होना. आतंकवाद का वह हथियार तो स्वयं अमेरिका का ही बनाया और चलाया हुआ था, उसीको मार गया- बूमरैंग! अब कोई यह समझने की/ सहानुभूति दिखाने की भूल भी ना करे कि उसमें निर्दोष जनों की जानें गई. उसमें जितने लोग थे, वे कौन थे? वहाँ क्या कर रहे थे? सर्वे भवन्तु सुखिनः का पाठ या कोई ऐसा ही विश्व-कल्याणकारी चिन्तन नहीं चल रहा था वहाँ! बल्कि शोषण चल रहा था. विश्व मानव को ठगने की, उसका खून चूसकर अमेरिकीयों को पिलाते रहने की कोई व्यापारिक साजिश चल रही थी. व्यापार चल रहा था, और व्यापार अभी शोषण का ही कानून-सम्मत रूप है. कानून- मानव कानून बनाता है अपनी सुविधा का ध्यान रखकर. जो ज्यादा शक्तिशाली है, कानून उसकी सुविधा के अनुसार बनता-बिगङता-बदलता रहता है. मगर प्रकृति का कानून शाश्वत नियमों की अकाट्य श्रृँखला है. मानव उस श्रृँखला को तोङने में जुटा है. चालाकी भी करता है. चालाकी करता है कि वह प्रकृति को बचाना चाहता है. जैसे अभी कोपेनहेगन में भी वही चली… बगुला भक्ति का नाटक चला. अब यह तो आज बच्चे भी समझ जाते हैं, प्रकृति के तो अनन्तानन्त कान-हाथ-पाँव हैं, उसका अपना गणित है, उसकी स्वीकृतियाँ-अस्वीकृतियाँ हैं.
जैसे प्रकृति हिंसा या विरोध पसन्द नहीं करती. कोई एक इकाई दूसरे की हिंसा करे, उसके क्रममें बाधक बने, यह प्रकृति की मान्य व्यवस्था नहीं है. इसीको मन्त्र-दृष्टाओं ने अहिंसा परमो धर्मः कह दिया. अहिंसा नियम है प्रकृति का, तो जो इस नियम को तोङता है, वह दण्डित हो जाता है, दुःख पाता है. प्रकृति में किसी नकारात्मक भाव के लिये स्थान नहीं है. शोक, भय या दुःख प्रकृति की व्यवस्था में हैं ही नहीं. तभी तो दुख देने वाला दिखाई नहीं देता, या कारण कोई भी मान लिया जाता है… पर मूल कारण प्रकृति की अपनी व्यवस्था के विरूद्ध मानव की गतिविधियाँ है. प्रकृति व्यवस्था में है. इसी व्यवस्था के दो सूत्र इस आलेख का विषय हैं- एक सूत्र यहीं, मेरी आँखों के सामने है, दूसरा मन-मष्तिस्क को मथता-गंगा के अस्तित्व का प्रश्न. और दोनों परस्पर इतने सम्बद्ध हैं कि एक के समझने से दूसरा समझ लिया जाता है.
हाँ, तो बारिश….दो बार… दोनों के साथ जुङा एक संकेत… प्रकृति की सूक्ष्म भाषा….सुधिजन पकङ सकें, ऐसी शुभ आशा.
कैंटीन में नाश्ता करके मैं मुख्य द्वार की तरफ़ बढ रहा था. मुख्य द्वार से अन्दर आने वाली सङक दो बागों में बटी है. दाहिनी तरफ़ की सङक तो गाङियों एवं मानवी पदचापों से व्यस्त रहती है, किन्तु जंगल से सटी बाँयी सङक वनचरों के लिये निरापद रहती है. सदा की तरह मैं इसी सङक पर नजर झुकाये चलता हुआ एक सुन्दर पतंगों के जोङे को मैथुन-रत देखता हूँ. मेरी पदचाप से दोनों बचने की कोशिश करते हैं. एक सीधा गति करता है, दूसरे को उल्टी गति लेनी पङती है, तो वह घिसटता सा लगता है. चटक नारंगी रंग पर लाल-काला धब्बा… कई धब्बे…और छोटी-छोटी चमकती आँखे. देखते ही लग जाये कि बङा जहरीला पतंगा है. किन्तु सुन्दर कितना है! इसके इतने चटक रंग कैसे बन गये! और अभी, इस मैथुन-रत अवस्था में इनकी सुन्दरता में जैसे चार चान्द ही लग गये हैं….. इनको बचाने की धुन में मेरा उठा पाँव कुछ क्षण उठा ही रह जाता है….कि यह दूसरा जोङा….तीसरा,चौथा… अरे! यह तो पूरी सङक ही अटी पङी है इन रेंगते-बचते पतंगों से! अपना पाँव दूसरे पाँव पर रखकर देखने लगा. ऐसा लगा जैसे कम्प्युटर पर कोई पृष्ठ खुलता हो- पहले धुंधला, अस्पष्ट और छितरा- छितरा सा, फ़िर धीरे से स्पष्ट होता…. अरे! यह दृष्य तो मैं पहले देख चुका हूँ…. सुबह-सुबह की सैर के समय…. ऐसे ही पाँव अटक गये थे….! इतनी बङी सँख्या में आनन्द मग्न जोङे. यह तो जैसे कोई महोत्सव ही चल रहा है. इतनी बङी सँख्या में मादा अंडे देगी! कितने पतंगे बन जायेंगे! और ये काटते हैं तो बङी जलन होती है. इनको मसल दो तो हाथ भयंकर गंध से सरोबार हो जाते हैं, मितली सी आने लगती है! … पर हैं कितने सुन्दर! ….उस दिन भी इतनी ही सँख्या में थे. शायद उस दिन भी बारिश आई थी………हाँ, उस दिन भी बारिश आई थी…. और बारिश के बाद ही पतंगों की बारात! चारों और पतंगे ही पतंगे दिखे. अल्पजीवी हैं, २४ या ४८ घंटे में ही सारा आनन्द-उत्सव हो जाता है इनका. देखो, कैसे मगन हैं एक दूसरे में! …. अभी अंडे…अभी बच्चे…. बरसात…इनका नृत्योत्सव…. और बस! सब फ़टाफ़ट! मगर ये बारिश आने की सूचना भी तो देते हैं. दोनों बार देखा है. इनका सामूहिक रूपसे रति-रत होना, और दो घंटे में बारिश! ….. बारिश होने के प्रयोजन में इनका यह उत्सव शामिल है. हाँ, प्रकृति में निष्प्रयोजन कुछ भी नहीं होता. हर घटना प्रयोजन सहित होती है. और इसकी हर इकाई परस्पर पूरक होती है. एक कङी टूटी तो पूरी श्रृँखला छिन्न-भिन्न हो जाती है. एक परमाणु से लेकर पूरे ब्रह्माण्ड तक और एक सूक्ष्मतम जन्तु से लेकर मानव तक… सब परस्पर पूरकता के सूत्र से जुङा है. कहीं कोई विरोध नहीं है, कहीं कोई संघर्ष नहीं है. संघर्ष की सारी आयोजना मानव के भ्रम से निकली, और इसका खामियाजा स्वयं मानव को ही भुगतना पङ रहा है.
जैसे रसायनिक खाद और कीटनाशकों ने खेत और खेती की सारी श्रृँखला को ही तहस-नहस कर दिया, और परिणाम सभी को भुगतना पङ रहा है. हाईटेक में बैठे विज्ञान-वेत्ताओं को ये जहरीले पतंगे खत्म करने की मनमें आई, तो बारिश का एक और प्रयोजन खतम. जाने कितने प्रयोजन हमने पहले ही खत्म कर दिये हैं. तभी तो ऋतु-चक्र बदल गया है. न समय पर मौसम बदलता है, न पूरा हो पाता है. गर्मी-सर्दी-बरषात सब अस्त-व्यस्त. तो मानव का अस्त-व्यस्त होना क्या बङी बात हो गई! सब जुङा है परस्पर. सब सम्बद्ध!
मगर मानव अभी नहीं समझेगा! इन पतंगों को नष्ट करने का रसायन बन ही रहा है कहीं ना कहीं. जहरीला और अनुपयोगी होने के नाम पर इनके विनाश का कोई विरोध भी नहीं होगा. ज्यादा दिन नहीं बचेंगे ये पतंगे. जो मानव गंगा जैसी जीवन दायिनी पवित्र नदी तक को नहीं छोङता…. गाय जैसे निरीह और अमृत-प्रदायी मातृ-तुल्य प्राणी को काट कर खा लेता है, उससे ये पतंगे क्या दया की उम्मीद करेंगे?
पर प्रकृति नियम से चलती है. चतुर तीरंदाज अपने ही तीर से मर जाता है, लोग कहते हैं कि उसकी लाठी चोट करती है, मगर दिखाई नहीं देती. बूमरैंग हो जाता है. बूमरैंग.-- साधक उम्मेदसिंह बैद... sahiasha.wordpress.com

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