

यह ब्लाग समर्पित है मां गंगा को , इस देवतुल्य नदी को, जो न सिर्फ मेरी मां है बल्कि एक आस्था है, एक जीवन है, नदियां जीवित है तो हमारी संस्कृति भी जीवित है.
भगीरथ घर छोड़कर हिमालय के क्षेत्र में आए। इन्द्र की स्तुति की। इन्द्र को अपना उद्देश्य बताया। इन्द्र ने गंगा के अवतरण में अपनी असमर्थता प्रकट की। साथ ही उन्होंने सुझाया कि देवाधिदेव की स्तुति की जाए। भागीरथ ने देवाधिदेव को स्तुति से प्रसन्न किया। देवाधिदेव ने उन्हें सृष्टिकर्ता की आराधना का सुझाव दिया। क्योंकि गंगा तो उनके ही कमंडल में थी।
दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गोकर्ण नामक तीर्थ में जाकर ब्रह्मा की कठिन तपस्या की। तपस्या करते करते कितने ही वर्ष बीत गये। ब्रह्माजी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा जी को पृथ्वी पर लेजाने का वरदान दिया।
प्रजापति ने विष्णु आराधना का सुझाव दिया। विष्णु को भी अपनी कठिन तपस्या से भागीरथ ने प्रसन्न किया। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही भगीरथ के प्रयत्न से संतुष्ट हुए। और अंत में भगीरथ ने गंगा को भी संतुष्ट कर मृत्युलोक में अवतरण की सम्मति मांग ली।
विष्णु ने अपना शंख भगीरथ को दिया और कहा कि शंखध्वनि ही गंगा को पथ निर्देश करेगी। गंगा शंखध्वनि का अनुसरण करेगी। इस प्रकार शंख लेकर आगे-आगे भगीरथ चले और उनके पीछे-पीछे पतितपावनी, त्रिपथगामिनी, शुद्ध सलिल गंगा।
ब्रह्म लोक से अवतरण के समय, गंगा सुमेरू पर्वत के बीच आवद्ध हो गयी। इस समय इन्द्र ने अपना हाथी ऐरावत भगीरथ को दिया। गजराज ऐरावत ने सुमेरू पर्वत को चार भागों में विभक्त कर दिया। जिसमें गंगा की चार धाराएं प्रवाहित हुई। ये चारों धाराएं वसु, भद्रा, श्वेता और मन्दाकिनी के नाम से जानी जाती है। वसु नाम की गंगा पूर्व सागर, भद्रा नाम की गंगा उत्तर सागर, श्वेता नाम की गंगा पश्चिम सागर और मंदाकिनी नाम की गंगा अलकनन्दा के नाम से मृत्युलोक में जानी जाती है।
सुमेरू पर्वत से निकल कर गंगा कैलाश पर्वत होती हुई प्रबल वेग से पृथ्वी पर अवतरित होने लगी। वेग इतना तेज था कि वह सब कुछ बहा ले जाती। अब समस्या यह थी कि गंगाजी के वेग को पृथ्वी पर कौन संभालेगा? ब्रह्माजी ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के अलावा और किसी में इस वेग को संभालने की शक्ति नही है। इसलिये गंगा का वेग संभालने के लिये भगवान शंकर से अनुग्रह किया जाये। महाराज भागीरथ ने एक अंगूठे पर खडे होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकरजी अपनी जटाओं में गंगाजी को संभालने के लिये तैयार हो गये। गंगा के प्रबल वेग को रोकने के लिए महादेव ने अपनी जटा में गंगा को धारण किया। इस प्रकार गंगा अपने अहंभाव के चलते बारह वर्षों तक शंकर की जटा में जकड़ी रही।
भगीरथ ने अपनी साधना के बल पर शिव को प्रसन्न कर कर गंगा को मुक्त कराया। भगवान शंकर पृथ्वी पर गंगा की धारा को अपनी जटा को चीर कर बिन्ध सरोवर में उतारा। यहां सप्त ऋषियों ने शंखध्वनि की। उनके शंखनाद से गंगा सात भागों में विभक्त हो गई। मूलधारा भगीरथ के साथ चली। महाराज भागीरथ के द्वारा गंगाजी हिमालय की घाटियों से कल कल का विनोद स्वर करतीं हुई मैदान की तरफ़ बढीं। आगे आगे भागीरथ जी और पीछे पीछे गंगाजी। यह स्थान हरिद्वार के नाम से जाना जाता है।
हरिद्वार के बाद गंगा की मूलधारा भगीरथ का अनुसरण करते हुए त्रिवेणी, प्रयागराज, वाराणसी होते हुए जह्नु मुनि के आश्रम पहुँची। भगीरथ की बाधाओं का यहां भी अंत न था। संध्या के समय भगीरथ ने वहीं विश्राम करने की सोची। परन्तु भगीरथ को अभी और परीक्षा देनी थी। संध्या की आरती के समय जह्नु मुनि के आश्रम में शंखध्वनि हुई। शंखध्वनि का अनुसरण कर गंगा जह्नु मुनि का आश्रम बहा ले गई। ऋषि क्रोधित हुए। उन्होंने अपने चुल्लु में ही भर कर गंगा का पान कर लिया। भगीरथ अश्चर्य चकित होकर रह गए। उन्होंने ऋषि की प्रार्थना शुरू कर दी। प्रार्थना के फलस्वरूप गंगा मुनि के कर्ण-विवरों से अवतरित हुई। गंगा यहां जाह्नवी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
यह सब देख, कोतुहलवश जह्नुमुनि की कन्या पद्मा ने भी शंखध्वनि की। पद्मा वारिधारा में परिणत हो गंगा के साथ चली। मुर्शिदाबाद में घुमियान के पास भगीरथ दक्षिण मुखी हुई। गंगा की धारा पद्मा का संग छोड़ शंखध्वनि से दक्षिण मुखी हुई। पद्मा पूर्व की ओर बहते हुए वर्तमान बांग्लादेश को गई। दक्षिण गामिनी गंगा भगीरथ के साथ महामुनि कपिल के आश्रम तक पहुँची। ऋषि ने वारि को अपने मस्तक से लगाया और कहा, हे माता पतितपावनी कलि कलुष नाशिनी गंगे पतितों के उद्धार के लिए ही आपका पृथ्वी पर अवतरण हुआ है। अपने कर्मदोष के कारण ही सगर के साठ हजार पुत्र क्रोधग्नि के शिकार हुए। आप अपने पारसरूपी पवित्र जल से उन्हें मुक्ति प्रदान करें। मां वारिधारा आगे बढ़ी। भस्म प्लावित हुआ। सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार हुआ। भगीरथ का कर्मयज्ञ सम्पूर्ण हुआ। वारिधारा सागर में समाहित हुई। गंगा और सागर का यह पुण्य मिलन गंगासागर के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ।
श्रीमद भगवत में गंगावतरण की कथा है। प्राचीन काल की बात है। अयोध्या में इक्ष्वाकु वंश के राजा सगर राज करते थे। वे बड़े ही प्रतापी, दयालु, धर्मात्मा और प्रजा हितैषी थे।
सगर का शाब्दिक अर्थ है विष के साथ जल। हैहय वंश के कालजंघ ने सगर के पिता वाहु को एक संग्राम में पराजित कर दिया था। राज्य से हाथ धो चुके वाहु अग्नि और्व ऋषि के आश्रम चले गए।
इसी समय वाहु के किसी दुश्मन ने उनकी पत्नी को विष खिला दिया। जब उन्हें जहर दिया गया तो वो गर्भवती थी। ऋषि और्व को जब यह पता चला तो उन्होंने अपने प्रयास से वाहु की पत्नी को विषमुक्त कर जान बचा ली। इस प्रकार भ्रूण की रक्षा हुई और समय पर सगर का जन्म हुंआ। विष को गरल कहते हैं। चूकिं बालक का जन्म गरल के साथ हुआ था इस लिए वह स + गर = सगर कहलाया।
सगर के पिता वाहु का और्व ऋषि के आश्रम में ही निधन हुआ। सगर बड़े होकर काफी बलशाली और पराक्रमी हुए। उन्होंने अपने पिता का खोया हुआ राज्य वापस अपने बल और पराक्रम से जीता। इस प्रकार सगर ने हैहयों को जीत कर अपने पिता की हार का बदला लिया।
ऋषि अग्नि अर्व हैहयों के परंपरागत शत्रु थे। उन्होंने भी सगर को हैहयों के विरूद्ध संग्राम में हर प्रकार की सहायता प्रदान की। सगर की दो पत्नियां थी वैदर्भी और शैव्या। राजा सगर ने कैलाश पर्वत पर दोनों रानियों के साथ जाकर भगवान शंकर की कठिन तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उनसे कहा कि तुमने पुत्र प्राप्ति की कामना से मेरी आराधना की है। अतएव मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम्हारी एक रानी के साठ हजार पुत्र होंगे किन्तु दूसरी रानी से तुम्हारा वंश चलाने वाला एक ही सन्तान होगा।
वैदभी के गर्भ से मात्र एक पुत्र था उसका नाम था असमंज। वे बड़े दुष्ट और प्रजा को दुख पहुंचाने वाले थे। जबकि सगर अत्यंत ही धार्मिक सहिष्णु और उदार थे। सगर के लिए असमंज का व्यवहार बड़ा ही दुख देने वाला था। जब उसकी आदतें नहीं सुधरी तो सगर ने असमंज को त्याग दिया।
असमंज के औरस से अंशुमान का जन्म हुआ। वह बहुत ही पराक्रमी था। अंशुमान ने अश्वमेघ और राजसूय यज्ञ सम्पन्न कराया और राजर्षि की उपाधि प्राप्त की।
शैव्या के गर्भ से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए। सभी काफी वीर और पराक्रमी थे। उनके ही बल पर सगर ने मध्यभारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की।
सगर न सिर्फ बहुबली और पराक्रमी थे, बल्कि धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति भी थे। वे ऋषियों महर्षियों का काफी आदर सत्कार और सम्मान किया करते थे। वशिष्ठ मुनि ने सगर को सलाह दी की अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान करें ताकि उनके साम्राज्य का विस्तार हो।
ऐसी मान्यता है कि प्राचीन काल में किए जाने वाले यज्ञानुष्ठानों में अश्वमेघ यज्ञ और राजसूय यज्ञ सर्वश्रेष्ठ थे। उन दिनों बड़े व प्रतापी और पराक्रमी सम्राट ही अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन करते थे। इस यज्ञ में 99 यज्ञ सम्पन्न होने पर एक बहुत अच्छे गुणों वाले घोड़े पर जयपत्र बांध कर छोड़ दिया जाता था। उस पत्र पर लिखा होता था कि घोड़ा जिस जगह से गुजरेगा वह राज्य यज्ञ करने वाले राजा के अधीन माना जाएगा। जो राजा या जगह स्वामी अधीनता स्वीकार नहीं करते थे, वे उस घोड़े को रोक लेते थे और युद्ध करते थे।
घोड़े के साथ हजारों सैनिक साथ साथ चलते थे। एक वर्ष पूरा होने पर घोड़ा वापस लौट आता था। इसके बाद उसकी बलि देकर यज्ञ पूर्ण होता था। महाराजा सगर ने अपने यज्ञ के घोड़े श्यामकर्ण की सुरक्षा के लिए हजारो सैनिकों की व्यवस्था की थी। वीर बाहुबलि सैनिक घोडे़ के साथ निकले, और आगे बढ़ते रहे। सगर का प्रताप चतुर्दिक फैल रहा था। जगह जगह उनके बल-पराक्रम और शौर्य की चर्चा होने लगी।
इससे देवराज इन्द्र को शंका हुई। सगर के इस अश्वमेघ यज्ञ से भयभीत होकर इन्द्र यह सोचने लगे कि अगर यह अश्वमेघ यज्ञ सफल हो गया तो यज्ञ करने वाले को स्वर्गलोक का राजपाट मिल जाएगा। इन्द्र ने यज्ञ के घोड़े को अपने मायाजाल के बल पर चुरा लिया। इतना ही नहीं उन्होंने इस घोड़े को पाताललोक में तपस्यारत महामुनि कपिल के आश्रम में छिपा दिया। उस समय मुनि गहन साधना में लीन थे। फलतः उन्हें पता ही नहीं लगा कि क्या हो रहा है?
एक साल पूरा होने को जब आया तो घोड़ा न लौटा सगर चिन्तित हो उठे। राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े की खोज कर लाने का आदेश दिया। ये पुत्र यज्ञ के घोड़े की खोज में निकल पड़े।
प्रस्तुतकर्ता- मनोज कुमार
गंगासागर की यात्रा की चर्चा के क्रम में हमने आपका सागर द्वीप से परिचय कराया था। हमारे लिये गंगा मात्र एक नदी ही नहीं, हमारे देश की आत्मा है। हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है। हम तो उसे अपने देश की अस्मिता के साथ जोड़कर देखते हैं। भारत की राष्ट्र-नदी गंगा जीवन ही नहीं, अपितु मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है। ग्रंथों में गंगा का वर्णन अनेक रूपों में मिलता है। भगीरथनंदिनी, विष्णुपदसरोजजा और जाह्न्वी के रूप में गंगा नर-नागों, देवताओं और ऋषिओं मुनियों के लिए वंदनीय है। गंगा के उद्भव (विष्णुपद), वास (ब्रह्म कमण्डल), विकास (भगीरथ नंदिनी), प्रवाह(जाह्न्वी) एवं प्रभाव (कल्पथालिका) का वर्णन है।
गंगा नदी के महत्व को सभी स्वीकार करते हैं; क्योंकि गंगा किसी में कोई भेद नहीं करती है। सभी को एक सूत्र में पिरोती है और एक सूत्र में बाँधे रखने का संकल्प प्रदान करती है गंगा।
हम उसे मां कहते हैं – गंगा मैय्या! गंगा जीवन तत्त्व है, जीवन प्रदायिनी है, इसीलिए माँ है। तभी तो उसे पवित्रतम नदी की संज्ञा देते हैं। गंगा को पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित् श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है। आज उस नदी की जीवन्तता पर प्रदूषण से बहुत बड़ा खतरा मंडरा रहा है। हम उसके विनाश का कारण न बनें। कितनी मुश्किलों से हमारे पूर्वजों ने गंगा को पृथ्वी पर लाया।
गंगा का पृथ्वी पर अवतरण की अनेक कथाएं प्रचलित हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार गंगा को लक्ष्मी और सरस्वती के साथ विष्णु की पत्नी मना गया है। ऐसा बताया गया है कि आपसी कलह और शत्रुता के कारण ये तीनों मृत्युलोक में नदी के रूप में चली आईं। ये तीन नदियां हैं – गंगा, पद्मा और सरस्वती।
एक अन्य कहानी के अनुसार गंगा के पृथ्वी पर अवतरण में नारद जी का हाथ है। कहा गया है कि महर्षि नारद को अपने संगीत के ज्ञान पर काफ़ी घमंड था। उनको लगता था कि उनके जैसा पहुंचा हुआ संगीतज्ञ कोई और नहीं है। घमंड में चूर वो संगीत का उलटा-पुलटा अभ्यास करते थे। न राग का ख़्याल था उन्हें न रागिनियों का। पूरा संगीत शास्त्र ही उन्होंने विकृत कर रखा था।
उनके इस व्यवहार से राग-रागिनियां अत्यंत दुखी हो गयीं। उन्होंने अपने विचार नारद मुनि को बताया। पर नारद तो घमंड में चूर थे। उन्हें लगता कि वे जो भी कर रहे हैं सब ठीक है। अपनी ग़लती वो पकड़ ही नहीं पा रहे थे। संगीत का समान्य ज्ञान था नारद के पास। पर उतने पर ही वे अहंकारी हो गये थे। अपने अल्प ज्ञान पर किसी को अहंकारी नहीं होना चाहिए। बल्कि उसे तो और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। संगीत साधना कोई छोटी-मोटी साधना नहीं है। इसे नादब्रह्म कहा गया है। संगीत साधना हो या अन्य कोई साधना – हमें सदैव अहंकार से दूर रहना चाहिए। सधना में जितनी विनम्रता होगी हम उतना ही अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। अहंकार से तो नाश ही होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं नारद, जिनके जैसे साधक को भी पतन का सामना करना पड़ा।
इधर राग-रागिनियां नारद के अहंकारी स्वभाव के चलते विकलांग होती गयी थीं। यह ख़बर देवताओं तक पहुंची। तब यह निश्चय हुआ कि यदि देवाधिदेव महादेव संगीताभ्यास करें तो राग-रागिनियां सामान्य हो सकेंगी। महादेव राज़ी हो गये। वो देवसभा में राग-रागिनियों के कल्याण हेतु गा रहे थे। पर उनके संगीत का स्तर काफ़ी शास्त्रीय था, उच्च था। उनके इस रस-गांभीर्य को समझने की क्षमता किसमें थी?! कुछ हद तक विष्णु की समझ में आ रहा था। पुराण में यह वर्णित है कि महादेव के गायन से जो संगीत-लहरी उठी उससे विष्णु भगवान के पैर का अंगुठा गल कर जल बन गया। और उस जल से पूरा देवलोक प्लावित हो गया। इस द्रव को ब्रह्मा जी ने अत्यंत सावधानी के साथ, अपने कमंडल में भरकर रख लिया। इसी जल को, जो ब्रह्मा के कमंडल में था, भगीरथ अपनी अथक तपस्या के बल पर पृथ्वी पर लाए ताकि सगर के पुत्रों का कल्याण हो सके। चूंकि यह जल विष्णु के पैर के विगलित होने से बना था, इसी कारण से गंगा का एक नाम विष्णुपदी भी है। विष्णुपदी गंगे सभी लोकों को पवित्र करने वाली, अघ ओघ की बेड़ियों को काटने वाली, पतितों का उद्धार करने वाली तथा दुःखों को विदीर्ण करने वाली है।.......
जारी है अगले अंक में गंगावतरण की दिव्य कथा
प्रस्तुतकर्ता -मनोज कुमार
राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े की खोज कर लाने का आदेश दिया। ये पुत्र यज्ञ के घोड़े की खोज में निकल पड़े। उन्होंने पूरी पृथ्वी छान मारी, किन्तु यज्ञ के घोड़ा का पता न लग सका। थक हार कर वे अयोध्या वापस लौट आए। उन्होंने राजा को पूरा वृतांत सुनाया। राजा सगर ने उन्हें पाताल लोक में खोजने का आदेश दिया। पुत्रों ने आज्ञा का पालन किया। पाताल लोक में खोजते-खोजते वे एक निविड़, शांत और पवित्र स्थल पर पहुंचे। उन्होंने देखा एक दिव्य साधु अपनी साधना में लीन है। उसी आश्रम में उन्हें यज्ञ का घोड़ा भी दिखा। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। सगर के पुत्रों को लगा कि इसी व्यक्ति ने घोड़े को चुरा कर यहां बांध रखा है। अब चोरी पकड़ी गई है तो युद्ध करने के भय से समाधि लगाने का ढोंग कर रहा है। सगर के पुत्रों को यह थोड़े ही पता था कि यह साधु साक्षात वासुदेव है। सगर के पुत्रों ने यह समझ कर कि घोड़े को महामुनि कपिल ही चुरा लाये हैं, कपिल मुनि को कटुवचन सुनाना आरम्भ कर दिया। राजा के पुत्रों ने कपिल मुनि को चोर चोर कहकर पुकारना शुरु कर दिया उन्होंने तरह-तरह के अत्याचार करना शुरू कर दिया। पर मुनि तो तपस्यारत थे। मुनि की तरफ से कोई उत्तर न पाकर वे क्रोधित हुए। सगर पुत्रों ने महामुनि की समाधि भंग कर दी। इससे महामुनि के क्रोध का पारावार न रहा। आग्नेय नेत्रों से उन्होंने सगर पुत्रों को देखा। अपने निरादर से कुपित हो चुके महामुनि की क्रोधाग्नि ने सगर के साठ हजार पुत्रों को जलाकर भस्म कर दिया!
इधर शोक में डूबे राजा सगर के व्याकुलता की सीमा न रही। न पुत्र लौटे, न ही यज्ञ का घोड़ा। उन्होंने असमंज के पुत्र अंशुमान को यज्ञ का घोड़ा और साठ हजार पुत्रों का पता लगाने को कहा। अंशुमान आज्ञा का पालन करने हेतु निकल पड़ा। अंशुमान ढूंढते-ढूंढते पाताललोक में महामुनि कपिल के आश्रम पहुंचा। वहां पर मुनि को साधनारत देख हाथ जोड खड़े रहे। जब महामुनि का ध्यान टूटा तो अपना परिचय देकर अपने आने का कारण और उद्देश्य बताया। अंशुमान की विनयशीलता एवं मृदु व्यवहार ने महामुनि कपिल को प्रभावित किया। उन्होंने सारी घटना अंशुमान को बताया। यह सुनते ही अंशुमान का दिल बैठ गया। दुख, व्यथा और आंसू भरे नयनों से अंशुमान ने मुनि को प्रणाम किया और बोले कि मुने! कृपा करके हमारा अश्व लौटा दें और हमारे दादाओं के उद्धार का कोई उपाय बतायें।
ऋषि ने कहा भष्म में परिवर्तित हो चुके सगर के साठ हजार पुत्रों की आत्मा की मुक्ति के लिए त्रिलोक तारिणी, त्रिपथ गामिनी गंगा का पृथ्वी पर अवतरण जरूरी है। गंगा की पुण्य वारिधारा ही सगर के पुत्रों को मुक्ति दिला सकती है। तुम्हारे दादाओं का उद्धार केवल गंगा के जल से तर्पण करने पर ही हो सकता है।
राजा सगर की पत्नी सुमति या शैव्या गरूड़ की सगी बहन थी। पक्षिराज गरूड़ ने भी अपने भांजों के कल्याण के लिए पतितपावनी गंगा के अवतरण की बात ही कही। उन्होने अंशुमान को बताया कि अगर उनकी मुक्त चाहिये तो गंगाजी को पृथ्वी पर लाना पडेगा। इस समय यज्ञ के घोडे को ले जाकर पिता का यज्ञ पूरा करवाओ, इसके बाद गंगा को पृथ्वी पर लाने का कार्य करना।
यज्ञ के घोड़े को लेकर अंशुमान अयोध्या वापस आया। सारी बातों से उसने राजा सगर को अवगत कराया। राजा सगर ने अपने यज्ञ पूरा किया। यज्ञ पूर्ण होने पर राजा सगर अंशुमान को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये उत्तराखंड चले गये। इस प्रकार अपने जीवन का शेष समय उन्होंने गंगा के पृथ्वी पर अवतरण हेतु साधना में लगाया। पर सफल न हो सके।
राजा सगर के बाद उनके पौत्र अंशुमान सत्तासीन हुए। अंशुमान के पुत्र का नाम दिलीप था। दिलीप के बड़े होने पर अंशुमान भी दिलीप को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये चले गये किन्तु वे भी गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफल न हो सके।
अंशुमान के बाद उनके पुत्र दिलीप भी अपनी सारी उर्जा गंगा को मृत्युलोक में अवतरण कराने के प्रयास में लगा दिया। पर सगर, अंशुमान और दिलीप के प्रयास गंगा को पृथ्वी पर लाने में सफलता नहीं दिला पाया।
राजा दिलीप निःसंतान थे। उनकी दो रानियां थी। वंश ही न खत्म हो जाए इस भय से दोनों रानियों ने ऋषि और्व के यहां शरण ले ली। ऋषि के आदेश से दोनों रानियों ने आपस में संयोग किया जिसके परिणामस्वरूप एक रानी गर्भवती हुई।
प्रसव के बाद एक मांसपिण्ड का जन्म हुआ। इस मांसपिण्ड का कोई निश्चित आकार नहीं था। रानी ने ऋषि और्व को सारी बात बताई। ऋषि ने आदेश दिया कि मांसपिण्ड को राजपथ पर रख दिया जाए। ऐसा ही किया गया।
अष्टवक्र मुनि स्नान करके अपने आश्रम लौट रहे थे। राजपथ पर उन्होंने मांसपिण्ड को फड़कते देखा। उन्हें लगा कि यह मांसपिण्ड उन्हें चिढ़ा रहा है। उन्होंने शाप दिया, “यदि तुम्हारा आचारण, स्वाभाव सिद्ध हो, तो तुम सर्वांग सुन्दर होओ और यदि मेरा उपहास कर रहे हो तो मृत्यु को प्राप्त हो।”
ऋषि का वचन सुनते ही मांसपिण्ड सर्वांग सुन्दर युवक में बदल गया। वह युवक चूंकि दोनों रानियों के संयोग से जन्म लिया था इसलिए उसका नाम हुआ भागीरथ।
माता ने भागीरथ के पूवर्जों की कथा सुनाई। भगीरथ चिंता में पड़ गए। किस तरह पूर्वजों का उद्वारा किया जाए? उनके सामने दुविधा थी, एक तरफ सांसरिक बंधन, तो दूसरी तरहफ पूर्वजों की मुक्ति का प्रश्न। उन्होंने पूर्वजों का उद्वारा को श्रेयस्कर समझा। इस हेतु प्राप्ति के लिए राज्य का भार मंत्रियों पर छोड़ वंश-उद्वार के लिए निकल पड़े।
गंगावतरण की यह कथा जारी है अगले भाग में..........
प्रस्तुतकर्ता-मनोज कुमार
कर्दम ऋषि को ब्रह्माजी का मानसपुत्र माना जाता है। ब्रह्मा जी के अंश से कर्दम मुनि हुए। वे प्रजापतियों में गिने जाते हैं। उन्हें ब्रह्माजी ने आदेश दिया था कि तुम प्रजा की सृष्टि करो। योग्य संतान प्राप्त हो इसके लिए उन्होंने कठोर तपस्या की। गुजरात अहमदाबाद के निकट प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है बिन्दुसार। यही ऋषि कर्दम की तपोभूमि है। इस तप से प्रसन्न हो शब्दब्रतरूप स्वयं नारायण अवतरित हुए। कर्दम ऋषि की तपस्या और साधना को देखकर भगवान की आंखों से आनन्द के आंसू गिरे। उससे बिन्दु सरोवर पवित्र हो गया।
भगवान ने कर्दम ऋषि से कहा “चक्रवर्ती सम्राट मनु, पत्नी शपरूपा के साथ अपनी पुत्री देवहूति को लेकर तुम्हारे ज्ञान आश्रम में आएंगे। उसका पाणिग्रहण कर लेना। ”
कालान्तर में वैसा ही हुआ। सबसे पहले मनु ( स्वयंभू मनु ) और उनकी पत्नी शतरूपा ब्रह्मा जी के अलग अलग दो भागो से प्रगट हुए। इनकी तीन बेटिया हुई। आकूति , प्रसूति और देवहूति। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति से हुआ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति से हुआ। ये वही दक्ष हैं जो माता पार्वती के पूर्वजन्म में उनके पिता थे और भगवान् शिव के पार्षद वीरभद्र ने जिनका यज्ञ विध्वंश किया था।
कर्दम मुनि का विवाह मनु जी की तीसरी बेटी देवहूति से हुआ। राजकुमारी देवहूति ने कर्दम ऋषि के साथ उस तपोवन में रहकर पति की सेवा करती रही। राजपुत्री होने का जरा भी उन्हें अभिमान नहीं था। कर्दम ऋषि काफी प्रसन्न एवं संतुष्ट हुए। उन्होंने पत्नी देवहूति को देवदुर्लभ सुख प्रदान किया।
परम तेजस्वी दम्पति के गृहस्थ धर्म में पहले नौ कन्याओं का जन्म हुआ। इन नौ कन्याओं का विवाह ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न नौ ऋषिओं से हुआ ।
(1) कला - मरीचि ऋषि के साथ विवाहित
(2) अनुसूया - अत्रि ऋषि के साथ विवाहित
(3) श्रद्धा - अड्गिंरा ऋषि के साथ विवाहित
(4) हविर्भू - पुलस्त ऋषि के साथ विवाहित
(5) गति - पुलह ऋषि के साथ विवाहित
(6) क्रिया - क्रत्तु ऋषि के साथ विवाहित
(7) ख्याति - भृगु ऋषि के साथ विवाहित
(8) अरूंधति - वशिष्ठ ऋषि के साथ विवाहित
(9) शान्ति देवी - अथर्वा ऋषि के साथ विवाहित
कर्दम ऋषि ने सन्यास लेना चाहा तो ब्रह्माजी ने उन्हें समझाया कि अब तुम्हारे पुत्र के रूप में स्वयं मधुकैटभ भगवान कपिलमुनि पधारने वाले हैं। प्रतीक्षा करो।
कर्दम एवं देवहूति की तपस्या के फलस्वरूप भगवान श्री कपिलमुनि उनके गर्भ से प्रकट हुए।
बाद में पिता के वन चले जाने के पश्चात कपिलमुनि ने अपनी माता देवहूति को सांख्यशास्त्र के बारे में जानकारी दी और उन्हें मोक्षपद की अधिकारिणी बनाया।
प्रस्तुतकर्ता
मनोज कुमार
पिछली पोस्ट में मैने ऋषिकेश के वीरभ्रद्र क्षेत्र का इतिहास बताया था पर इस पोस्ट में यह बता दू कि क्यो इस क्षेत्र को वीरभद्र के नाम से जाना ...