Wednesday, July 27, 2011

चरर्मोत्कर्ष पर है श्रावण मास की कावड यात्रा............




गंगा के करीब इन दिनों कावड यात्रा अपने चरर्मोत्कर्ष पर पहुच चुकी है । शिव की भक्ति की कामना में रचे बसे कावडियों को तो बस भोले बाबा को जल चढाना है गंगा जल को अपने साथ लं जाना है चाहे कितने भी कष्ट हो गंगा नहाना है ।
श्रावण मास की इसे कावड यात्रा में श्रद्वालुओ की संख्या लाखों को पार कर चुकी पर अभी तक इसमे कमी नही बल्कि बढोतरी ही हुई है ।


कावडियों की  गतिविधियों को देखे कैमरे की नजरों से ...................
 ....................कुछ झलकियां












हर की पैडी , हरिद्वार, करना है गंगा स्नान।
























थोडा कर ले विश्राम




























हुक्का भी गुडगुडा ले




















कांवड में भर ले गंगा जल ।










                                                                         











अब चले अपनी डगर
















































यह कावड लगे सबसे न्यारी।
























बातचीत कर धुआ भी उडा लूं ।












आह ! कितनी शान्ति है यहां..............!























Sunday, June 12, 2011

शिव ने कराया सोमरस पान........प्रकट हुआ शिवलिंग ! (सामेश्वर महादेव, ऋषिकेश) अन्तिम भाग

पिछली पोस्ट में आपने सोमश्वर महादेव मंदिर  व ग्यारह वटवृक्षों  बारे में जाना अब जानिए यहां के शिवलिंग की महत्ता के बारे ..............
तीन  स्वंयभू शिवलिंग में नीलकंठ के बाद 
यह प्रधान पीठ है । "लयं गच्छति भूतानि 
संहारे निखिल यत: " अर्थात संहार के समय सपूर्ण चराचर उसी में समाहित हो जाते है उसी से पुन: सृष्टि होती है इसलिए 
शिव के लिंग महत्वपूर्ण है ।सोमेश्वर मंदिर के स्वंयभू शिवलिंग को निष्कल त्रेणी के लिंग मे रखा जा सकता है । लिंग पुराण 3108 में निष्कल लिंगो को पूजा के योग्य माना गया है उर्ध्व भाग एवं पूजा के रूपायन के आधार पर लिंगों को दो वर्गो में बांटा गया है -गुप्तोत्तर कालीन शिश्न लिंग एवं मध्यकालीन आकारवादिलिंग।
सोमेश्वर मंदिर स्थित लिंग गुप्तोत्तर कालीन लिंगो में से एक है । जिस प्रकार बाडाहाट में विश्वनाथ एवं गोपेश्वर मंदिरों के लिंग इसी काल के है शिवलिंग में वलय तथा रेखायें उभरी हई  है । कहते है कि एक बार किसी ने शिवलिंग को आधुनिक युक्तियों से बनाने का यत्न किया तो रात में ही संपूर्ण  निर्माण सामग्री शिवलिंग से हट गयी और यह अपने पुराने स्वरूप में लौट आया । इस तरह के शिवलिंग यत्र -तत्र ही प्राप्त होते है ।    

इस सिद्वपीठ की महत्ता के बारे में एक जनश्रुति यह भी मिलती है कि ब्रिटिश शासन काल में एक अंग्रेज ने इस शिवलिंग को स्यंभू  (प्राकृतिक रूप से उत्पन्न) नही माना तब इस स्थान की आठ दस फीट गहरी खुदायी करा डाली इस खुदाई के पश्चात एक पूरा पहाड पृथ्वी के नीचे से निकला इसी में यह शिंवलिग स्थापित था । यहां की पौराणिकता में संदेह नही किया जा सकता । महाभारत में भी उल्लेख मिलता है कि जब पांडव हिमालय गये तो माता कुंती समेत पांचो पुत्रो ने इस शिवंलिग का 
जलाभिषेक किया था।
मंदिर के आस पास ऋषि मुनियों के समाधि स्थल है ।वट वृक्ष एंव पीपल के वृक्षों से घिरे इस मंदिर की वातावरण शान्त व रमणिक है । साधुओ की धूनी यहां हमेशा जलती रहती है व प्रसाद के तौर पर   भभूत श्रद्वालुओं को दी जाती है।


सावन के महीने में व महाशिवरात्रि के दिन इस स्यंभू शिवलिंग पर जल चढाने  तथा पूजा अर्चना करने का  विशेष महत्व है । अपनी मनोकामनां पर्ण करने के लिए मंदिर शिंव परिवार की पूजा व रूद्राभिषेक कराने का अत्यन्त महत्व है।



इतने पौराणकि व ऎतिहासकि महत्व का मंदिर होने के बावजूद यहां का अभी तक कुछ खास विकास नही हुआ है । एक तरफ तो उत्तराखण्ड सरकार धार्मिक पर्यटन को बढाने व विकास के लिए
प्रयासरत है पर जब बात इतने महत्वपूर्ण स्थलो की होती है तो इनके हिस्से में सिर्फ उपेक्षा ही आती है। 
यदि हालात इस तरह के ही रहे तो एक दिन यह पौराणिक स्थल केवल आबादी से घिर कर अपनी महत्ता व शान्त वातावरण को नष्ट कर बैठेगे ओर भविष्य में देवभूमि उत्तराखण्ड के पास विश्व को देने के लिए सिर्फ अशान्ति ही होगी शान्ति नही जिस पर देवभूमि के लोग गर्व करते है की हमारी भूमि 
के दर्शन मात्र से शान्ति मिलती है । 


Sunita Sharma Khatri
Freelancer Journalist
Uttarakhand



Friday, June 10, 2011

गंगा दशहरा........तथा.... गंगा

भारत की  ग्रामीण  जनता के जीवन में गंगा दशहरा जैसे पर्वो का बहुत ही महत्व है शहरों में भी इसका प्रभाव है पर उनकी भाग दौड भरी जिन्दगी यह पर्व अपनी पहचान खोते जा रहे है , निरन्तर श्रमलीन रहने वाली जनता  के लिए गंगा दशहरा के मायने ही कुछ अलग है वह गंगादि नदियों के तट पर अपने प्रियजनो के साथ गंगा स्नान करते है अपने सुख-दुख बाटते है।



गंगाअवतरण की घटना अपने आप में आलौकिक तथा ऎतिहासकि है जिस पर इस ब्लाग में पहले भी प्रकाश डाला जा चुका है ।गंगा अवतरण ने भारत की दशा-दिशा ही बदल दी थी इसी की स्मृति में होने वाला गंगा दशहरा का पर्व युग-युग तक भगीरथ आदि महापुरूषों की याद दिलाता रहेगा जिनके नाम ही कठिन परिश्रम के प्रतीक बन गये।गंगा की महिमा का वर्णन वेदों से लेकर सम्पूर्ण अवान्तर साहित्य में भरा हुआ है 
गंगा दशहरा ज्येष्ठ शुक्ला दशमी को सम्पुर्ण भारत में महान धार्मिक पर्व के रूप में मनाया जाता है गंगा के अर्विभाव की यह कथा वाल्मीकिरामायण तथा महाभारतदि ग्रन्थों में बडे विस्तार से दी गयी है --
दशमां शुक्लापक्षे तु ज्येष्ठे मासे बुधेहनि ।
अवतोरर्णा यत:स्वर्गद्वस्तर्क्षे  च सरिद्वरा।।
हरते दश पापानि तस्मादृशहरा स्मृता ।
जिसका अर्थ है कि ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को बुधवार को हस्त नक्षत्र में गंगा स्वर्ग ये धरा पर अवतरित हुई थी । इस दिन स्नानादि शुभ कर्म करने से मनुष्यों के पापों का नाश होता है ।  


  भारत के लोग ही नही आज गंगा विदेशियों के लिए भी गंगा मां उनके मन भी आपार श्रद्वा व विश्वास गंगा के लिए जो जीवनदायिनी है ।भारत के पूर्व प्रधान मन्त्री जवाहर लाल नेहरू के मन में भी गंगा के प्रति अटूट स्नेह व विश्वास था । उन्होने गंगा के प्रति अपनी भाव भरी श्रद्वांजलि कुछ इस तरह दी थी जिसकी कुछ पक्तियां इस प्रकार है  "गंगा भारत की खास नदी है,जनता को प्रिय है।
गंगा मेरे लिए निशानी है,भारत की प्राचीनता की ,यादगार की जो बहती आई है वर्तमान तक और बहती चली जा रही है भविष्य के महासागर की ओर ।"


(मेरे लिए सबसे अहम है बस मेरा यही चिन्तन जो भी लोगो के द्वारा इस नदी की पवित्रता को बचाने के लिए जो कुछ भी जागरूकता आयी क्या उससे सचमुच ही मां गंगा जिसके जल हमने प्रदुषित कर डाला क्या वह हमारे साथ इसी तरह साफ -सुथरे वेगमयी रूप में अपना भविष्य तय कर पायेगी?)

Wednesday, June 8, 2011

शिव ने कराया सोमरस पान........प्रकट हुआ शिवलिंग ! (सामेश्वर महादेव, ऋषिकेश)

हरिद्वार से ऋषिकेश में प्रवेश करते ही चुंगी चौकी से पश्चिम दिशा में स्थित है सोमेश्वर  महादेव मंदिर। वट वृक्ष के नीचे बना यह मंदिर सोमेश्वर नगर में स्थित मुख्य मार्ग से थोडी उंचाई पर है। यहां तक पहुचने के लिए सीढीयों का निर्माण किया हुआ है संपूर्ण क्षेत्र में वट वृक्ष एंव पीपल के वृक्षों की बहुतायत है । इस स्थान का वर्णन स्कन्द पुराण में भी मिलता है वर्णित कथा के अनुसार भगवान शिव ने यहां देवताओ को सोमरस का पान करवाया तथा एकादश रूद्रो को प्रकट किया । 
पूरे विश्व में कही भी ऎसा स्थान नही है जहां ग्यारह वट  वृक्ष मिलते हो यह ग्यारह वट वृक्ष ग्यारह रूद्रों का प्रतिरूप है ।जिन्हें भगवान शिव  


ने प्रकट किया और भगवान शिव  स्वंय
 जीवित रूप में इन वृक्षों में निवास करते है ।

एक बार सोमदेव नामक ऋषि ने अपने पांव के अंगूठे के बल पर खडे होकर भगवान शंकर की कठोर तपस्या की तत्पश्चात शिव ने उसे अपने दर्शनो से फलीतार्थ किया । सोमदेव ऋषि के इस जगह पर तप किये जाने के कारण इस पूरे क्षेत्र को सोमेश्वर नगर के नाम से भी जानते है ।ऋषि मुनियों की तपस्थली होने के कारण कालांतर में लोगो को यहां की महत्ता के बारे मे पता चला व वह यहां पूजा अर्चना को आने लगे  ।  


ऋषिकेश में सर्वाधिक प्राचीन आघ ऎतिहासकि मंदिरों में सामेश्वर मंदिर सिद्व पीठ के रूप में जाना जाता है यहां  स्थित तीन सिद्वपीठ मंदिरों में वीरभद्रेश्वर ,चन्द्रेश्वर में से एक सि़द्व पीठ मंदिर सोमश्वर महादेव है । वृक्ष आच्छादित इस मंदिर की विशेषता है कि इसमें वृक्ष पूजा एवं वृक्ष के नीचे स्थापित प्रतिमा है आच्छादित मंदिरो में सोमेश्वर मंदिर इस श्रेणी के मंदिर का अनुपम उदाहरण है ।ब्राहृमण ,बौद्व जैन महान धर्मो की धारायें पर्याप्त कालोंपरांत प्रवाहित हई । इनके उदय से पूर्व अन्यंत्र  की भांति जनसाधारण जडात्य पूजा अथवा भोग ,यक्ष ,भूमिया ,भूतादि  स्थानीय देवता की पूजा करता था ।

मंदिरों के सम्बन्ध में यह जानकारी देते हुए  यह बताना अत्यंत आवशयक है कि आघ ऎतिहासि क वास्तु का एक प्राचीनतम तथा सरलतम रूप तब वृक्ष मंदिर रहा है वृक्ष को देवता या यक्ष का निवास स्थान माना जाता था वृक्ष के चारों ओर वेदी बना कर उसकी पुष्प ,जल और बलि से पूजा की जाती थी इस प्रकार प्राचीन पूजा 
वृक्ष चैत्य वृक्ष  और सवृक्ष चैत्य के बहुश: अंदान प्राप्त होते है ।  वृक्ष व प्रतिमा पूजा बहुत पहले से चली आ रही है जैन सुत्रों में वर्णन है की महावीर काल में चैत्य वृक्ष से संबद्व यक्ष  और नाग भी आच्छादित मंदिरो के ही रूप थे।मथुरा से प्राप्त अब बोस्टन संग्रहालय में प्रारम्भिक कुषाणकालीन एक उत्तरंग पर संवेदी वृक्ष के नीचे एक शिवलिंग अंकित  है । इसी प्रकार इस भाग में मिली कुणिंद-मुद्राओ पर संवेदी वृक्ष का अंकन है  मंदिरो निर्माण के उपरान्त भी वृक्ष पूजा क की प्राचीन प्रथा प्रचलित रही यह आज भी जारी है  यह मंदिर आघ एतिहासिक मंदिर के वर्गीकरण में रखे जाने के पीछे एक तथ्य यह भी है कि वट वृक्ष के नीचे स्थापित शिवलिंग की पूजा शताब्दियों से की  जनसाधारण द्वारा की जा  रही है । कांलातर में विस्तार किया गया । वट वृक्ष आच्छादित इस मंदिर की विशेषता यह भी है की इस मंदिर मे पूजा उस शिवलिग की ,की जाती है जो स्वंयभू है अर्थात स्वंय उत्पन्न हुआ था । शेष अगली पोस्ट में जानिये कुछ ओर सोमेशवर महादेव मंदिर की महत्ता के बारे में व  क्या है ? स्यंभू शिवलिंग .... ........
सुनीता शर्मा खत्री 
स्वतंत्र पत्रकार 

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यहां वीरभद्र प्रकट हुआ था ----- वीरभद्रेश्वर मंदिर (ऋषिकेश)

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