Sunday, September 20, 2009

गंगा नदी ही नही एक अद्भभुत संस्कृति





 गंगा एक विशाल नदी है,  जो हिमालय से सागर को जोडते हुए गंगासागर तक  की लगभग 2525कि0 मी0 की यात्रा के दौरान 21प्रथम त्रेणी,22द्वितीय त्रेणी तथा 48 साधारण श्रेणी के नगरों से गुजरती है।हिमालय की पर्वत श्रेणियों  की पुरातत्वीय  गुफाओ में जीते भौगौलिक प्रदेशों को नापतें ,एतिहासिक घटनाओ को समेटते हुए इस नदी ने जीवन संस्कृति को प्रभावित किया है।जवाहर लाल नेहरू ने अपनी वसीयत में लिखा है कि है:-
"गंगा भारत की प्रतीक है लोग इससे प्यार करते है उनकी  स्मृतियां आशाएं  एंव विजय गीत हर एक निराशा और  पराजय भी गंगा से संबद्व है।"



 (गंगोत्तरी मंदिर,प्राचीन काल में यह लकडी व पत्थर का बना था)



( शिव, गंगा के वेग को धारण करते हुए )


भारत की समस्त नदियों में यही एकमात्र  ऎसी नदी है जो  स्वर्ग से उतर कर पृथ्वी पर आई है गंगावतरण की घटना  अपने आप में आलौकिक है जिसे हम बचपन से सुनते आ रहे है। इसका वर्णन महाभारत के  वनपर्व ,बाल्मीकी रामायण  के बालकाण्ड ,ब्रह्रमाण्ड पुराण,पघ पुराण और भागवत पुराण में मिलता है पौराणकि कथाओ  के अनुसार गंगा की उत्पत्ति सृष्टि के रचयिता ......... ....ब्रहृमा के कमण्डल  के पवित्र जल से हुई है।जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया तो अपने त्रिवकिम रूप  से पृथ्वी तथा दूसरा पैर स्वर्ग की ओर बढाया तो विष्णु के चरणो से आकाशगंगा की उत्पत्ति हुई  और यह आकाशगंगा कैलाश पवत के इर्द-गिर्द इठलाती रही । कई शताब्दियों तक यह आकाशगंगा विष्णुपदी के रूप में आकाश में विचरण करती रही । सगर वंश के कई राजाओ ने अपने पुरखों की अस्थियों को पवित्र कराने के लिए पीढी दर पीढी अथक प्रयत्नशील रहे ।तत्पश्चात  कई वर्षो के कठाेर तप के बाद भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर आने के लिए राजी कर लिया। गंगा के मन में अंहकार पैदा हो गया और उसने सोचा कि वह शिव को अपने साथ पताल ले जायेगी गंगा के पृथ्वी पर अवतरित होने से पृथ्वी को अपने विनाश की चिन्ता हुई और ब्रहृमा की शरण में गयी ब्रहृमा ने पृथ्वी को शिव की तपस्या करने को कहा क्योकि वही गंगा के वेग को आधार प्रदान कर सकते थे ।भगीरथ ने शिव की एक पैर से तपस्या की,उसकी तपस्या से प्रसन्न हो शिव ने गंगा को अपने सिर पर जटाओ में धारण कर लिया फिर धीरे-धीरे अपनी जटाओ  से गंगा को मुक्त किया और वह बहती हुई सात धाराओ में बट गयी जिसमें से तीन  और अंतिम धारा भगीरथ के पीछे चल कर अपने गन्तव्य की ओर पहुंची............।
अगर गंगा के लौकिक पक्ष को देखे तो गंगा की भगीरथी तथा अलकनन्दा दो धारायें हिमाचल की चौखम्बा गढवाल हिमालय पवत श्रृंखला के सतोपथ शिखर से दो विपरीत दिशाओ में बहने वाली पनढाली के पाद प्रदेश में बने सरोवरों से निकलती है ।विपरीत दिशाओ में बहती हुई दोनों धारायें देवप्रयाग में आकर मिल जाती है और  इसी स्थान से अलकनन्दा एंव भागीरथी धारायें गंगा बन कर ऋषिकेश को पार करती हुई मैदानी भागो में पर्दापण करती है।गंगा का वास्तविक स्रोत गंगोत्री ग्लेशियर है संतोपंथ शिखर से गौमुख तक यह शिखर ग्लेशियर 30 कि.मी.लम्बा और 2से 3 कि.मी. चौडा है।......जारी   है  दुसरे भाग में .................................

Thursday, September 17, 2009

गंगा मै तेरे कितने करीब हूं ?







गंगा मै तेरे कितने पास होते हुए भी दूर हू,
याद आता है वो बचपन
जब मन किया ,खेल लिया करते रेत में,
बनाते घरौदें ,मंदिर ,मूरत
फिर पत्थरों का पुल न बना पाने की कोशिश
रूला देती सबकों
फिर भी नन्हें हाथों से बना ही लेते ,रेत से


गंगा मै तेरे पास होते हुए भी दुर हूं.........!

तेरे विशाल प्रवाह से बच,
किनारे-किनारे तैरने की
असफल कोशिशे
कैमरा ले उतार लेना तेरे
छायाचित्र ,खुद को समझ
एक माडल पानी में खिचवाना
अपने चित्र

                                 गंगा मै तेरे कितने पास होते हुए भी दूर हूं.........!



बहू बन कर देती हूं
मंगलद्वीप प्रजवल्लित
और बहा देती हुं तेरे
प्रवाह में कितने ही अमंगल
दूर होने पर ,तेरी लहरें
गुंजती है बस संगीत बनकर
भूल जाती हूं अपने सारे दर्द
जल लेकर अंजुली भर



गंगा में तेरे कितने पास होते हुए भी दूर हूं..............!
  
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Monday, September 14, 2009

ऋषिकेश एक तपस्थली------अन्तिम भाग


.............ऋषिकेश से आगे मुनि की रेती आैर तपोवन के  उत्तर के पर्वत का नाम ऋषि पर्वत है इसके नीचे के भाग में अर्थात गंगातट पर एक गुफा में शेषजी स्वयं निवास करते है एेसा माना जाता है तपोवन क्षेत्र में अनेको गुफाएं थी जहां पुर्वकाल में ऋषि-मुनि तपस्या करते थे।शिवपुराण खण्ड 8 अध्याय 15 के अनुसार गंगा के पश्चिमी तट पर तपोवन है जहां शिवजी की कृपा से लक्ष्मणजी पवित्र हो गये थे। यहां  लक्ष्मणजी शेष रूप में आैर शिव लक्ष्मणेश्वर के नाम से विख्यात हुए ।
 भगवान राम,लक्ष्मण,भरत ,शत्रुघन ने भी यहां की यात्रा की। त्रिवेणी घाट स्थित रघुनाथ मंदिर भगवान राम की विश्राम स्थली रहा। उनकी उत्तराखण्ड की यात्रा के दौरान का । ऋषिकेश के ही निकट शत्रुघन ने ऋषि पर्वत पर तपस्या की । स्वामी विवेकानन्द जी ने एक वर्ष तक यहां तप किया था। आज भी मानसिक रूप से विक्षिप्त को मानसिक शान्ति एंव पुण्य का लाभ होता है। यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि महापण्डित राहुल कई बार ऋषिकेश आये ।यहां के आ़श्रमों में योग व अध्यात्म की अतुलनीय धारा बहती है। देश से ही नही वरन् विदेशी भी काफी मात्रा में तप के लिए  यहां आते है ।
   मणिकुट पर्वत में महर्षि योगी द्वारा ध्यान पीठ की स्थापना की गई है जिसमें चौरासी सिद्वों की स्मृति में चौरासी गुफायें,योगसाधना के लिए सौ से अधिक गुफाएं भुमि के गर्भ में बनी है। ऋषिकेश के प्रमुख मंदिर इस प्रकार है--भरतमंदिर,भद्रकाली मंदिर ,  रघुनाथ मंदिर ,वराह मंदिर,पुष्कर मंदिर, गोपाल मंदिर,भैरव मंदिर , लक्ष्मण मंदिर ,आदि बदरी द्वारकाधीश मंदिर ,तथा त्रिमुखी नारायण मंदिर ,जो पौराणकि एंव प्राचीन है,  वीरभद्र मंदिर ,चन्द्रेशवर मंदिर। इसके अलावा कई आश्रम ट्रस्ट  ,धर्मशालाएं ,धर्माथ चिकित्सालय एंव यात्रियों की सुख सुविधा हेतु अनेक आधुनिक होटल है।
जहां एक अोर ऋषिकेश में आधुनिक पर्यटन की समस्त सुविधायें है वही दूसरी आेर त्रिवेणीघाट  एंव स्वर्गाश्रम का क्षेत्र एंव गंगा जी की परमार्थ की सांयकालीन आरती का दृश्य हो सबकुछ कितना आलौकिक लगता है  इसका वर्णन वही कर सकता है जिसने इसका दर्शन व अनुभव किया हो । इस तपस्थली की गाथा का वर्णन हम शब्दों में नही कर सकते ,इस स्थान के तप की महिमा अपरम्पार है।
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  (सभी चित्र ट्रिपअडवाइसर से साभार )
                                                  

Saturday, September 12, 2009

ऋषिकेश एक तपस्थली-- भाग--4



ऋषिकेश एक तपस्थली के रूप में  देवताओ से सम्बन्धित ऋषि-मुनियों की तपस्थली पर्वतों की तलहटी में बहती देवनदी गंगा के कारण यह स्थान अति पवित्र माना गया है।स्कन्दपुराण में वर्णन आता है कि ऋषिकेश  में जहां चन्द्रेशवर नगर जहां आज स्थित है वहां चन्द्रमा ने अपने क्षय रोग की निवृति के लिए चौदह हजार देव वर्षो तक तपस्या की थी यह भी उल्लेखनीय है कि कभी यहां भंयकर आग लगी जिससे कुपित होकर शंकर ने अग्नि को शाप से मुक्ति हेतु तप किया इस कारण इसे अग्नि र्तीथ भी कहा गया है।
आज यह नगरी जिस रूप में है उसकी पौराणिकता यह है कि जो भी शान्ति हमें यहां मिलती है उसके पीछे कही यह वजह तो  नही जो तप यहां हुए उसकी वजह से आज भी  ऎसा महसुस करते है।
बाल्मीकि रामायण में भी वर्णन आता है कि भगवान त्रीराम ने वैराग्य से परिपूण होकर इसी स्थान में विचरण किया था ।शिवपुराण में वर्णन आता है कि ब्रहृमपुत्री संध्या ने भी यही तप कर शिव दर्शन प्राप्त किया जो बाद में अरून्धती के नाम से विख्यात हुई।
केदारखण्ड पुराण के अनुसार---गंगा द्वारोत्तर विप्र स्वग स्मृता: बुधै:,यस्य दर्शन वियुक्तों भव बन्धनों:    अर्थात गंगाद्वार हृरिद्वार के उपरान्त केदारभूमि स्वर्ग । भूमि के समान शुरू होती है।जिसमें प्रवेश करते ही दर्शन मात्र से ही भव बन्धनों से मुक्ति हो जाती है ।राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के भस्म हो जाने के उपरान्त जो चार पुत्र रह गये थे उसमें से एक हृषिकेतु ने यहां तप किया था ।मेरे द्वारा इन तपस्वियों के तप का ज्रिक करने का तात्पर्य यह है कि ताकि जनमानस यह जान सके कि ऋषिकेश की तपभूमि किन लोगो की तपस्या द्वारा फलीभूत हुई है साथ आधुनिक र्तीथ यात्री इस पावन स्थान की महत्ता को बरकरार रखे। 
सतयुग में  सोमशर्मा ऋषि ने हृषिकेश नाराणण की कठोर तपस्या की जिससे प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें वर मांगने को कहा था भगवान विष्णु ने उन्हे वर प्रदान कर अपने दर्शन भी कराये इसका जिक्र भी केदारखण्ड में मिलता है।यहां के जो सिद्वस्थल है --वीरभ्रद्र,सोमेशवर एवं चन्द्रेशवर में रात्रि में आलौकिक अनुभूतियां होती है, चन्द्रेशवर में चन्द्रमा ने तप किया तो सोमेशवर में सोमदेव नामक ऋषि ने अपने  पांव के  अंगूठे के बल पर खडे होकर तपस्या की ...................आगे  जारी है।

Thursday, September 10, 2009

ऋषिकेश एक तपस्थली भाग--3







ऋषिकेश की प्राचीनता-डा0शिव प्रसाद नैथानी ने अपनी पुस्तक उत्तराखण्ड के तीर्थ् एंव  मदिर में उल्लेख् किया है कि "महाभारत से पता चलता है कि यहां नागों का राज्य था जो   संभवत आर्य ही थे परन्तु उन्हे वृषल माना जाता था ।यघपि हम यह जानते  है कि कुरूवेश में नाग रक्त था  जनमेजय का प्रधान पुरोहित सोमश्रवा  नागमाता  का पुत्र था,और अजुर्न ने इसी हृषिकेश  में नागराज कुमारी उलुपी से विवाह किया था ।"1982 में भ्ररतमंदिर में हुई   पुरातात्विक खुदाई से ज्ञात होता है कि 2000 साल पहले यह तीर्थ जनसंकुल था और उत्तराखण्ड जाने वाला महापथ यही से होकर गुजरता था । ऋषिकेश के शैव स्थानों की प्राचीनता का सम्बन्ध र्वमन नरेशों से जोडा जा सकता है। ईशावर्ममन के पुत्र सवर्वमन की हुणों पर विजय के स्मारक अभिलेख निर्मड हिमाचल तथा सिरोली में  (चमोली) में विघमान है।यह वर्मन नरेश शैव थे गौड नरेशों की विजवाहिनियां धर्म  विजय  स्वरूप में ऋषिकेश से होकर आगे बढी थी बाद में कन्नौज पर प्रतापी भोज प्रतिहार ( 836-85) का शासन आया, जिसकी राज्य सीमा बदरीकेदार तक थी जो "विष्णु की निर्गुण-सगुण रूप में ऋषिकेश की पूजा करता था ।" आठवी से दसवी शती ई0 के मध्य यहां  कत्यूरी सम्राराज्य था इस वंश के नरेशों की प्राचीन राजधानी कार्तिकेयपुर नाम से जोशीमठ में थी मध्यकाल तक यहां बहुत कम जनसंख्या थी । तीर्थ यात्रा के समय ही यात्रीगण  आते शेष समय केवल मंदिर के पुजारी एंव तीथ पुरोहित ही रहते अधिकांश स्थान में वांस झाडियों के साथ यहां अनेकों मंदिरों के विघमान होने के संकेत मिलते है। 1909 तक ऋषिकेश कैसा था इस बारे राहुल सांस्कृत्यायन की टिप्पणी उदघृत करते हैं। -"1909 में कभी ऋषिकेश 10-5 घरों का गामडा़, अब अयोध्या के कान काटता है।"

Wednesday, September 9, 2009

बागबान........



वो बागबान है ,सीचां है उन्होने नन्ही कलियो को
बहुत से फूल है उनके गुलशन में
रगंबिरंगे,नाजुक सें
फूल जो कभी हंसते है कभी रोते है
पर वो अपने फूलों को रोने हंसने को नही कहते।
 मै जानती हुं वो बागबां आज उदास है
एक आधी आई है जो ठहर गयी है
उनके हसीन गुलशन पे
उस आंधी को कह वो इन नन्हें फूलों को
छोड कही और अपना बसेरा कर लें
नही  तो बागबान कहर तूझे नही बख्सेगा।
वो सींचता है नन्हे पौधौ को बहुत प्यार से
नही सहन करता उनकी उदासी को
पौधे ही कू्र बन जाते है कर देते है
बगावत बागबां से,मै जानती हूं वो
नही होता है खुश मुरझायें फूलों को देख
 रोता है वो ,गुलशन से कह दो, बहारों
एक बार आ जाआ ,मै जानती हूं बागबां उदास है फिर...............
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