Tuesday, April 20, 2010

गंगावतरण - एक आलौकिक कथा भाग-एक

सर्वत्र पावनी गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा।

गंगा द्वारे, प्रयागे च गंगासागर संगमे॥

image गंगासागर की यात्रा की चर्चा के क्रम में हमने आपका सागर द्वीप से परिचय कराया था। हमारे लिये गंगा मात्र एक नदी ही नहीं, हमारे देश की आत्मा है। हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है। हम तो उसे अपने देश की अस्मिता के साथ जोड़कर देखते हैं। भारत की राष्ट्र-नदी गंगा जीवन ही नहीं, अपितु मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है। ग्रंथों में गंगा का वर्णन अनेक रूपों में मिलता है। भगीरथनंदिनी, विष्णुपदसरोजजा और जाह्न्वी के रूप में गंगा नर-नागों, देवताओं और ऋषिओं मुनियों के लिए वंदनीय है। गंगा के उद्भव (विष्णुपद), वास (ब्रह्म कमण्डल), विकास (भगीरथ नंदिनी), प्रवाह(जाह्न्वी) एवं प्रभाव (कल्पथालिका) का वर्णन है।

गंगा नदी के महत्व को सभी स्वीकार करते हैं; क्योंकि गंगा किसी में कोई भेद नहीं करती है। सभी को एक सूत्र में पिरोती है और एक सूत्र में बाँधे रखने का संकल्प प्रदान करती है गंगा।

हम उसे मां कहते हैं – गंगा मैय्या! गंगा जीवन तत्त्व है, जीवन प्रदायिनी है, इसीलिए माँ है। तभी तो उसे पवित्रतम नदी की संज्ञा देते हैं। गंगा को पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित् श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है। आज उस नदी की जीवन्तता पर प्रदूषण से बहुत बड़ा खतरा मंडरा रहा है। हम उसके विनाश का कारण न बनें। कितनी मुश्किलों से हमारे पूर्वजों ने गंगा को पृथ्वी पर लाया।

image गंगा का पृथ्वी पर अवतरण की अनेक कथाएं प्रचलित हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार गंगा को लक्ष्मी और सरस्वती के साथ विष्णु की पत्नी मना गया है। ऐसा बताया गया है कि आपसी कलह और शत्रुता के कारण ये तीनों मृत्युलोक में नदी के रूप में चली आईं। ये तीन नदियां हैं – गंगा, पद्मा और सरस्वती।

एक अन्य कहानी के अनुसार गंगा के पृथ्वी पर अवतरण में नारद जी का हाथ है। कहा गया है कि महर्षि नारद को अपने संगीत के ज्ञान पर काफ़ी घमंड था। उनको लगता था कि उनके जैसा पहुंचा हुआ संगीतज्ञ कोई और नहीं है। घमंड में चूर वो संगीत का उलटा-पुलटा अभ्यास करते थे। न राग का ख़्याल था उन्हें न रागिनियों का। पूरा संगीत शास्त्र ही उन्होंने विकृत कर रखा था।

उनके इस व्यवहार से राग-रागिनियां अत्यंत दुखी हो गयीं। उन्होंने अपने विचार नारद मुनि को बताया। पर नारद तो घमंड में चूर थे। उन्हें लगता कि वे जो भी कर रहे हैं सब ठीक है। अपनी ग़लती वो पकड़ ही नहीं पा रहे थे। संगीत का समान्य ज्ञान था नारद के पास। पर उतने पर ही वे अहंकारी हो गये थे। अपने अल्प ज्ञान पर किसी को अहंकारी नहीं होना चाहिए। बल्कि उसे तो और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। संगीत साधना कोई छोटी-मोटी साधना नहीं है। इसे नादब्रह्म कहा गया है। संगीत साधना हो या अन्य कोई साधना – हमें सदैव अहंकार से दूर रहना चाहिए। सधना में जितनी विनम्रता होगी हम उतना ही अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। अहंकार से तो नाश ही होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं नारद, जिनके जैसे साधक को भी पतन का सामना करना पड़ा।

image इधर राग-रागिनियां नारद के अहंकारी स्वभाव के चलते विकलांग होती गयी थीं। यह ख़बर देवताओं तक पहुंची। तब यह निश्चय हुआ कि यदि देवाधिदेव महादेव संगीताभ्यास करें तो राग-रागिनियां सामान्य हो सकेंगी। महादेव राज़ी हो गये। वो देवसभा में राग-रागिनियों के कल्याण हेतु गा रहे थे। पर उनके संगीत का स्तर काफ़ी शास्त्रीय था, उच्च था। उनके इस रस-गांभीर्य को समझने की क्षमता किसमें थी?! कुछ हद तक विष्णु की समझ में आ रहा था। पुराण में यह वर्णित है कि महादेव के गायन से जो संगीत-लहरी उठी उससे विष्णु भगवान के पैर का अंगुठा गल कर जल बन गया। और उस जल से पूरा देवलोक प्लावित हो गया। इस द्रव को ब्रह्मा जी ने अत्यंत सावधानी के साथ, अपने कमंडल में भरकर रख लिया। इसी जल को, जो ब्रह्मा के कमंडल में था, भगीरथ अपनी अथक तपस्या के बल पर पृथ्वी पर लाए ताकि सगर के पुत्रों का कल्याण हो सके। चूंकि यह जल विष्णु के पैर के विगलित होने से बना था, इसी कारण से गंगा का एक नाम विष्णुपदी भी है। विष्णुपदी गंगे सभी लोकों को पवित्र करने वाली, अघ ओघ की बेड़ियों को काटने वाली, पतितों का उद्धार करने वाली तथा दुःखों को विदीर्ण करने वाली है।.......

जारी है अगले अंक में गंगावतरण की दिव्य कथा

प्रस्तुतकर्ता -मनोज कुमार


गंगावतरण – एक आलौकिक कथा..... भाग - ३

राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े की खोज कर लाने का आदेश दिया। ये पुत्र यज्ञ के घोड़े की खोज में निकल पड़े। उन्‍होंने पूरी पृथ्वी छान मारी, किन्तु यज्ञ के घोड़ा का पता न लग सका। थक हार कर वे अयोध्‍या वापस लौट आए। उन्होंने राजा को पूरा वृतांत सुनाया। राजा सगर ने उन्‍हें पाताल लोक में खोजने का आदेश दिया। पुत्रों ने आज्ञा का पालन किया। पाताल लोक में खोजते-खोजते वे एक निविड़, शांत और पवित्र स्‍थल पर पहुंचे। उन्‍होंने देखा एक दिव्‍य साधु अपनी साधना में लीन है। उसी आश्रम में उन्हें यज्ञ का घोड़ा भी दिखा। उनके आश्‍चर्य का ठिकाना न रहा। सगर के पुत्रों को लगा कि इसी व्‍यक्ति ने घोड़े को चुरा कर यहां बांध रखा है। अब चोरी पकड़ी गई है तो युद्ध करने के भय से समाधि लगाने का ढोंग कर रहा है। सगर के पुत्रों को यह थोड़े ही पता था कि यह साधु साक्षात वासुदेव है। सगर के पुत्रों ने यह समझ कर कि घोड़े को महामुनि कपिल ही चुरा लाये हैं, कपिल मुनि को कटुवचन सुनाना आरम्भ कर दिया। राजा के पुत्रों ने कपिल मुनि को चोर चोर कहकर पुकारना शुरु कर दिया उन्‍होंने तरह-तरह के अत्‍याचार करना शुरू कर दिया। पर मुनि तो तपस्‍यारत थे। मुनि की तरफ से कोई उत्तर न पाकर वे क्रोधित हुए। सगर पुत्रों ने महामुनि की समाधि भंग कर दी। इससे महामुनि के क्रोध का पारावार न रहा। आग्‍नेय नेत्रों से उन्‍होंने सगर पुत्रों को देखा। अपने निरादर से कुपित हो चुके महामुनि की क्रोधाग्नि ने सगर के साठ हजार पुत्रों को जलाकर भस्‍म कर दिया!

45489 इधर शोक में डूबे राजा सगर के व्‍याकुलता की सीमा न रही। न पुत्र लौटे, न ही यज्ञ का घोड़ा। उन्‍होंने असमंज के पुत्र अंशुमान को यज्ञ का घोड़ा और साठ हजार पुत्रों का पता लगाने को कहा। अंशुमान आज्ञा का पालन करने हेतु निकल पड़ा। अंशुमान ढूंढते-ढूंढते पाताललोक में महामुनि कपिल के आश्रम पहुंचा। वहां पर मुनि को साधनारत देख हाथ जोड खड़े रहे। जब महा‍मुनि का ध्‍यान टूटा तो अपना परिचय देकर अपने आने का कारण और उद्देश्‍य बताया। अंशुमान की विनयशीलता एवं मृदु व्यवहार ने महामुनि कपिल को प्रभावित किया। उन्‍होंने सारी घटना अंशुमान को बताया। यह सुनते ही अंशुमान का दिल बैठ गया। दुख, व्‍यथा और आंसू भरे नयनों से अंशुमान ने मुनि को प्रणाम किया और बोले कि मुने! कृपा करके हमारा अश्व लौटा दें और हमारे दादाओं के उद्धार का कोई उपाय बतायें।

ऋषि ने कहा भष्‍म में परिवर्तित हो चुके सगर के साठ हजार पुत्रों की आत्‍मा की मुक्ति के लिए त्रिलोक तारिणी, त्रिपथ गामिनी गंगा का पृथ्‍वी पर अवतरण जरूरी है। गंगा की पुण्‍य वारिधारा ही सगर के पुत्रों को मुक्ति दिला सकती है। तुम्हारे दादाओं का उद्धार केवल गंगा के जल से तर्पण करने पर ही हो सकता है।

राजा सगर की पत्‍नी सुमति या शैव्‍या गरूड़ की सगी बहन थी। पक्षिराज गरूड़ ने भी अपने भांजों के कल्‍याण के लिए पतितपावनी गंगा के अवतरण की बात ही कही। उन्होने अंशुमान को बताया कि अगर उनकी मुक्त चाहिये तो गंगाजी को पृथ्वी पर लाना पडेगा। इस समय यज्ञ के घोडे को ले जाकर पिता का यज्ञ पूरा करवाओ, इसके बाद गंगा को पृथ्वी पर लाने का कार्य करना।

यज्ञ के घोड़े को लेकर अंशुमान अयोध्‍या वापस आया। सारी बातों से उसने राजा सगर को अवगत कराया। राजा सगर ने अपने यज्ञ पूरा किया। यज्ञ पूर्ण होने पर राजा सगर अंशुमान को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये उत्तराखंड चले गये। इस प्रकार अपने जीवन का शेष समय उन्‍होंने गंगा के पृथ्‍वी पर अवतरण हेतु साधना में लगाया। पर सफल न हो सके।

राजा सगर के बाद उनके पौत्र अंशुमान सत्तासीन हुए। अंशुमान के पुत्र का नाम दिलीप था। दिलीप के बड़े होने पर अंशुमान भी दिलीप को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये चले गये किन्तु वे भी गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफल न हो सके।

अंशुमान के बाद उनके पुत्र दिलीप भी अपनी सारी उर्जा गंगा को मृत्‍युलोक में अवतरण कराने के प्रयास में लगा दिया। पर सगर, अंशुमान और दिलीप के प्रयास गंगा को पृथ्‍वी पर लाने में सफलता नहीं दिला पाया।

राजा दिलीप निःसंतान थे। उनकी दो रानियां थी। वंश ही न खत्‍म हो जाए इस भय से दोनों रानियों ने ऋषि और्व के यहां शरण ले ली। ऋषि के आदेश से दोनों रानियों ने आपस में संयोग किया जिसके परिणामस्‍वरूप एक रानी गर्भवती हुई।

smalltiled_lizard_scales प्रसव के बाद एक मांसपिण्‍ड का जन्म हुआ। इस मांसपिण्‍ड का कोई निश्चित आकार नहीं था। रानी ने ऋषि और्व को सारी बात बताई। ऋषि ने आदेश दिया कि मांसपिण्‍ड को राजपथ पर रख दिया जाए। ऐसा ही किया गया।

अष्टवक्र मुनि स्‍नान करके अपने आश्रम लौट रहे थे। राजपथ पर उन्‍होंने मांसपिण्‍ड को फड़कते देखा। उन्‍हें लगा कि यह मांसपिण्‍ड उन्‍हें चिढ़ा रहा है। उन्‍होंने शाप दिया, “यदि तुम्‍हारा आचारण, स्‍वाभाव सिद्ध हो, तो तुम सर्वांग सुन्‍दर होओ और यदि मेरा उपहास कर रहे हो तो मृत्‍यु को प्राप्त हो।”

ऋषि का वचन सुनते ही मांसपिण्‍ड सर्वांग सुन्‍दर युवक में बदल गया। वह युवक चूंकि दोनों रानियों के संयोग से जन्‍म लिया था इसलिए उसका नाम हुआ भागीरथ।

sunrise माता ने भागीरथ के पूवर्जों की कथा सुनाई। भगीरथ चिंता में पड़ गए। किस तरह पूर्वजों का उद्वारा किया जाए? उनके सामने दुविधा थी, एक तरफ सांसरिक बंधन, तो दूसरी तरहफ पूर्वजों की मुक्ति का प्रश्‍न। उन्‍होंने पूर्वजों का उद्वारा को श्रेयस्‍कर समझा। इस हेतु प्राप्ति के लिए राज्य का भार मंत्रियों पर छोड़ वंश-उद्वार के लिए निकल पड़े।


गंगावतरण की यह कथा जारी है अगले भाग में..........


प्रस्तुतकर्ता-मनोज कुमार

Sunday, April 18, 2010

बहृमा जी के मानसपुत्र......कर्दम ऋषि

कर्दम ऋषि को ब्रह्माजी का मानसपुत्र माना जाता है। ब्रह्मा जी के अंश से कर्दम मुनि हुए। वे प्रजापतियों में गिने जाते हैं। उन्‍हें ब्रह्माजी ने आदेश दिया था कि तुम प्रजा की सृष्टि करो। योग्‍य संतान प्राप्‍त हो इसके लिए उन्‍होंने कठोर तपस्‍या की। गुजरात अहमदाबाद के निकट प्रसिद्ध तीर्थ स्‍थल है बिन्‍दुसार। यही ऋषि कर्दम की तपोभूमि है। इस तप से प्रसन्‍न हो शब्‍दब्रतरूप स्‍वयं नारायण अवतरित हुए। कर्दम ऋषि की तपस्‍या और साधना को देखकर भगवान की आंखों से आनन्‍द के आंसू गिरे। उससे बिन्‍दु सरोवर पवित्र हो गया।

भगवान ने कर्दम ऋषि से कहा “चक्रवर्ती सम्राट मनु, पत्‍नी शपरूपा के साथ अपनी पुत्री देवहूति को लेकर तुम्‍हारे ज्ञान आश्रम में आएंगे। उसका पाणिग्रहण कर लेना। ”

कालान्‍तर में वैसा ही हुआ। सबसे पहले मनु ( स्वयंभू मनु ) और उनकी पत्नी शतरूपा ब्रह्मा जी के अलग अलग दो भागो से प्रगट हुए। इनकी तीन बेटिया हुई। आकूति , प्रसूति और देवहूति। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति से हुआ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति से हुआ। ये वही दक्ष हैं जो माता पार्वती के पूर्वजन्म में उनके पिता थे और भगवान् शिव के पार्षद वीरभद्र ने जिनका यज्ञ विध्वंश किया था।

कर्दम मुनि का विवाह मनु जी की तीसरी बेटी देवहूति से हुआ। राजकुमारी देवहूति ने कर्दम ऋषि के साथ उस तपोवन में रहकर पति की सेवा करती रही। राजपुत्री होने का जरा भी उन्‍हें अभिमान नहीं था। कर्दम ऋषि काफी प्रसन्‍न एवं संतुष्‍ट हुए। उन्‍होंने पत्‍नी देवहूति को देवदुर्लभ सुख प्रदान किया।

परम तेजस्वी दम्पति के गृहस्‍थ धर्म में पहले नौ कन्याओं का जन्म हुआ। इन नौ कन्याओं का विवाह ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न नौ ऋषिओं से हुआ ।

(1) कला - मरीचि ऋषि के साथ विवाहित

(2) अनुसूया - अत्रि ऋषि के साथ विवाहित

(3) श्रद्धा - अड्गिंरा ऋषि के साथ विवाहित

(4) हविर्भू - पुलस्‍त ऋषि के साथ विवाहित

(5) गति - पुलह ऋषि के साथ विवाहित

(6) क्रिया - क्रत्तु ऋषि के साथ विवाहित

(7) ख्‍याति - भृगु ऋषि के साथ विवाहित

(8) अरूंधति - वशिष्‍ठ ऋषि के साथ विवाहित

(9) शान्ति देवी - अथर्वा ऋषि के साथ विवाहित

कर्दम ऋषि ने सन्‍यास लेना चाहा तो ब्रह्माजी ने उन्‍हें समझाया कि अब तुम्‍हारे पुत्र के रूप में स्‍वयं मधुकैटभ भगवान कपिलमुनि पधारने वाले हैं। प्रतीक्षा करो।

कर्दम एवं देवहूति की तपस्‍या के फलस्‍वरूप भगवान श्री कपिलमुनि उनके गर्भ से प्रकट हुए।

बाद में पिता के वन चले जाने के पश्‍चात कपिलमुनि ने अपनी माता देवहूति को सांख्‍यशास्‍त्र के बारे में जानकारी दी और उन्‍हें मोक्षपद की अधिकारिणी बनाया।

प्रस्तुतकर्ता

मनोज कुमार

Wednesday, April 14, 2010

सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार .......भाग -दो - कपिल मुनि

पिछ्ले पोस्ट सारे तीर्थ बार बार, गंगा सागर एक बार में हमने गंगासागर तीर्थ स्थल के यात्रा की चर्चा की थी। गंगासागर तीर्थ के साथ-साथ आदि संख्‍याचार्य कपिलमुनि का नाम भी समभाव से संलग्‍न है। भागवत के अनुसार भगवान कपिलदेव विष्णु के अन्यतम अवतार थे। कर्दम प्रजापति के औरस एवं मनुकन्‍या देवहुति के गर्भ से इनका जन्‍म हुआ था। नौ कन्याओं के बाद भगवान् कपिल मुनि का जन्म हुआ । ये आजन्म ब्रह्मचारी रहे। कपिल के आविर्भाव के समय ब्रह्मा ने कर्दम से कहा था हे मुनि! आपका यह पुत्र साक्षात ईश्वर के स्वरूप हैं। स्वयं भगवान माया का रूप धारण कर कपिल के रूप में आपके यहां अवतरित हुए हैं।

पद्मपुराण के अनुसार महामुनि कपिल को सांख्ययोग का प्रणेता माना जाता है। श्रीमद्भागवत में भी इस आशय का उल्लेख है। उनका जन्म बिन्दु सरोवर आश्रम में हुआ था जो गुजरात में स्थित है। ऐसा कहा गया है कि स्‍वयं ब्रह्मा ने कहा था, सांख्‍यज्ञान का उपदेश देने के लिए परब्रह्म ने स्‍वयं भगवान के सत्त्वअंश से जन्म लिया है। गीता (1016) में भगवान श्रीकृष्‍ण कहते हैं -

सिद्धानां कपिलो मुनिः।

अर्थात सिद्धगणों के बीच प्रधान। श्‍वेताश्‍वतर (5/2) उपनिषद में भी कपिल का नाम मिलता है। श्वेताश्वर श्रुति में कपिल को वासुदेव का अवतार कहा गया है।

ग्रंथों में यह वर्णित है कि महर्षि कर्दम ने मनुकन्या देवहुति को भविष्यवाणी करते हुए बताया कि मैं जब तपस्या में लीन रहूँगा तब तुम भगवान विष्णु को पुत्ररूप में प्राप्त करोगी। वो तुम्हें परब्रह्म के तत्व को समझाएंगे और तुम्हें मुक्ति (मोक्ष) का पथ बतलाएंगे। कपिल के जन्म के पश्चात कर्दम मुनि चले गए और देवहूति को बताकर गए कि उनका पुत्र कपिल ही देवहूति का उद्धार करेगा। सांख्ययोज्ञाचार्य कपिल ने अपनी माता देवहुति को सिद्धपुर में सांख्ययोग की शिक्षा दी थी। यह स्थान गुजरात के पाटन के नज़दीक है। संसार की सृष्टि व जीवात्मा का गूढ़ रहस्य का तत्व सांख्यदर्शन में दिया है।

महर्षि कपिल ने अपनी मां को अहं का भाव, अहंकार त्याग करने की दीक्षा दी। साथ ही भक्तिमार्ग पर अनुगमन करने को कहा और मंत्र प्रदान किया। भक्ति से शरीर और ज्ञान से मन की शुद्धि होती है। इससे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। जब आत्मज्ञान प्राप्त हो जाए तो लक्ष्य यानी मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

देवहुति भगवान विष्णु को पुत्र रत्न के रूप में पाकर धन्य हुई। उनके द्वारा बताए गए विधि अनुसार पूजा-पाठ, जप-तप, ध्यान-योग में रम गईं। इस प्रकार अपनी मां को योग, मीमांसा, तत्व आदि की व्याख्या करने के पश्चात कपिल मुनि ने आश्रम का त्याग किया और एकाग्रचित्त होकर तपस्या करने के उद्देश्य से पाताललोक (सागरद्वीप) चले आये। यहां पर अपना आश्रम बनाया।

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अतः कपिल एवं उनके द्वारा प्रतिपादित सांख्‍यदर्शन की प्राचीनता के विषय में कोई संदेह होना उपयुक्‍त नहीं है। सांख्‍यवादियों का मानना है कि कपिलमुनि ही विश्‍व के आदि विद्वान और उपदेशक हैं। वे स्‍वयंभु ज्ञानी थे। उनका कोई गुरू अथवा उपदेशक नहीं था। सत्त्‍वज्ञान लेकर ही उनका आविर्भाव हुआ था।

सुतंरा सांख्‍ययोग को विश्‍व का आदि उपदेश माना जाता है। प्राचीन सांख्‍यवादियों के बीच आसुरि पंचशिख आदि के नाम प्रसिद्ध है। रामायण में भी उल्‍लेख है कि कपिलमुनि पाताल लोक के क्षेत्र में तपस्‍यारत थे। वाल्मीकी रचित रामायण से साबित होता है कि गंगासागर क्षेत्र ही महर्षि कपिल का आश्रम था। अतः कलुषनाशिनी सुरेश्‍वरी गंगा का सागर में मिलन और नारायणावतार महायोगी, महातपस्‍वी, आदि महाज्ञानी कपिलमुनि के आश्रम वाले क्षेत्र

गंगासागर में सर्वत्र मोक्ष है – जल, थल और अंतरिक्ष में।

भगवान विष्णु व महादेव जी गंगा-सागर में नित्य निवास करते है उसका प्रमाण है

स्नात्व य: सागरे मर्त्यो दृष्ट्वा च कपिल हरिम् । ब्र.पु.

गंगासागरसंयोगे संगमेश इति स्मृत: ।। शि.पु.

प्रस्तुतकर्ता

मनोज कुमार

Monday, April 12, 2010

कौन है यह..........नागा सन्यासी







कौन है यह नागा सन्यासी की इस आलेख सीरीज में अब तक नागा सन्यासियों के बार में आप सभी को काफी जानकारी मिल चुकी है पिछली पोस्टों में आपने इनके प्रादुभाव - पराक्रम व कार्यो के बारे में जाना इनके द्वारा लडे गये युद्वों के बारे में अब आगे...........काशी ज्ञानवापी के युद्वों के बारें में जानने के लिए पढे कौन है यह नागा सन्यासी भाग -3
हरिद्वार का युद्व-सन् 1966 में जब औरंगज़ेब के आतातायी सेनापतियो ने हरिद्वार तीर्थ की पवित्रता को नष्ट करने के लिए आक्रमण किया तो पंचायती अखाडा के महानिवार्णी के नागा सन्यासियों ने अपने नेताओं के साथ हरिद्वार पहुँच कर आक्रमणकारियों से युद्व करने के लिए शंखनाद किया और अपना झंडा तथा निशान स्थापित करके मुगलसेना का संहार करना आरम्भ कर दिया इसमें मराठा सेना ने भी उनका साथ दिया इस तरह नागाओ

ने हरिद्वार की रक्षा की ।
पुष्कर राजतीर्थ की रक्षा -पुष्कर के दोना पवित्र तीर्थो पर मुसलमान गुजरों की खानाबदोश लुटेरी जाति ने अधिकार करके उसकी पवित्रता को नष्ट करने का प्रयत्न किया लेकिन उसी समय दशनाम नागा सन्यासियों के एक दल ने आक्रमण करके उन गुजरों को पराजित करके वहां से भगा दिया व पुष्कर नगर ब्राहृमणों को सौप दिया ।
जिस समय मुगलों के शाही तक्ष्त पर अहमदशाह बैठा था उसन अवध के नवाब सफदर जंग को अपना वजीर बनाया था ।इस नियुक्ति के कारण ही बंगश अफगान उसके विरोधी हो गये वह जनता पर निरंतर अत्याचार करके भंयकर आपत्ति का सृजन कर रहे थे ऎसी परिस्थितियों में अखाडे के नागा सन्यासियों के द्वारा ही नगर एवं जनता की रक्षा हई ।श्री राजेन्द्रगिरी उस समय नागा सन्यासयों की विशाल सेना के के अधिनायक थे उन्होने बंगश अफगानो को देखकर ही दुर्ग-रक्षक की याचना पर उसको भी अफगानों के भय से मुक्त किया ।राजेन्द्र गिरी, उमराव गिरी, अनूपगिरी ,एतबारपुरी ,नीलकण्ठ गिरी आदि के नेतृत्व में सनातन धर्म की रक्षा प्रकट होती रही ।जिन राजाओ को इनकी सहायता मिलती थी बदले में उन राजाआ द्वारा इन्हे वार्षिक अनुदान का लाभ भी मिलता था।इसके अतिरिक्त अन्य कितने ही देशी राज्यों को इन नागा सन्यासियों न सहायता दी थी नागा सन्यासियों ने ही राजपुत सेना के दोष दुर करने सहायता की थी इसके साथ ही इनकी सेना को स्थिरता भी प्रदान की थी इनके इन योगदानों को कतिपय भुलाया नही जा सकता ।









Friday, April 9, 2010

सारे तीर्थ बार बार गंगा सागर एक बार

आदिकाल से बहती आ रही हमारी पाप विमोचिनी गंगा अपने उद्गम गंगोत्री से भागीरथी रूप में आरंभ होती है। यह महाशक्तिशाली नदी देवप्रयाग में अलकनंदा से संगम के बाद गंगा के रूप में पहचानी जाती है। लगभग 300 किलोमीटर तक नटखट बालिका की तरह अठखलियां करती, गंगा तीर्थनगरी हरिद्वार पहुंचती है। तीर्थनगरी में कुंभस्‍नान तो हम पिछले महीने कर आए थे। अब घर के सदस्‍यों का विचार हुआ गंगा का सागर से संगम भी हो आया जाय। हर साल मकर सक्रांति पर्व पर महाकुंभ जैसा पर्व यहां लगता है। तीर्थस्‍थल गंगासागर श्रेष्‍ठ तीर्थ क्षेत्र है। पहले यहां आने जाने की सुविधा उतनी नहीं थी। अतः यह लोकोक्ति प्रचलित हो गई।

सारे तीर्थ बार बार |

गंगा सागर एक बार||

यह तीर्थ एक समय अत्‍यंत दुर्गम था। उस समय यंत्र चालित नाव नहीं थी। बिजली, पानी, आश्रम एवं परिवहन संवा का अभाव था। आज ऐसी बात नहीं है। पथ की वह दुर्गमता अब नहीं रही। यातायात के अनेक साधन का विकास हुआ है। जिससे यात्रा सहज हो गई है। इस जनविरल तीर्थ में अनेक आश्रम स्‍थापित हो चुके हैं पक्‍के रास्‍तों का निर्माण बसों का आवागमन आदि आंरभ हो चुका है।

अब तो यातायात के कई साधन हो चुके हैं। कोलकाता से गासागर जाने की सड़क भी काफी अच्‍छी और चौड़ी है। सरकारी व गैर सरकारी बस के द्वारा लट नम्‍बर 8 तक पहूँचा जा सकता है। हमने तो अपनी गाड़ी से ही यात्रा आरंभ की। कोलकाता से लट नं 8 तक की दूरी लगभग 100 किलोमीटर की है। बीच में लगभग 40 किलोमीटर की दूरी तय करने पर डायमंड हारबर आता है। यहां पर सड़के के किनारे गंगा का फैलाव एवं दृश्‍य बड़ा ही मनोरम है। गाड़ी से उतर कुछ देर यहां का आनंद लिया फिर आगे की यात्रा पर निकल पड़े

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डायमंड हारबर

लट नं; 8 तक पहूँचने में लग्‍भग दो घंटे लगे। यहां से जलयान द्वारा कचुबेडि़या द्वीप के लिए जाया जाता है। यह दूरी लगभग 8 किलोमीटर की है और जलयान द्वारा इसे तय करने में 25 से 30 मिनट लगते हैं। सुबह छह बजे से ही जलयान या फेरी सेवा शुरू हो जाती है, जो रात के नौ बजे तक चलती रहती है।

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कहते हैं कि पहले कोचुबेडि़या द्वीप और घोड़ामारा द्वीप एक था बाद में जल के कटाव से दोनों अलग हो गए।

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बंगाल के सुदूर दक्षिणी छोर पर विश्‍वविख्‍यात सुंदरवन है। सागर द्वीप उसी सुन्दर वन का एक महत्‍वपूर्ण भाग है। यह द्वीप 30 किलोमीटर लम्‍बा और औसत 10-12 किलोमीटर चौडा है। यह लगभग 5000 वर्ष पुराना है। यह दक्षिण 24 परगना जिले में आता है। कोचुबेडि़या से गंगासागर तट तक दूरी 30 किलोमीटर है और यहां बस, ट्रेकर अथवा प्राइवेट गाड़ी से जाया जा सकता है। हमने यह यात्रा टाटा सूमो से तय की। रास्‍ता काफी अच्‍छा है।

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तट पर का मनोरम दृश्‍य देख कर हम तो अत्‍यंत प्रसन्‍नचित हुए। जलनिधि का किल्‍लोल, रूपहले बालू कण और महामुनि कपिल का प्राचीन मन्दिर।

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गंगासागर की छवि की छटा निराली है। ऊपर नील गगन का विस्‍तार, नीचे श्‍वेत, फेनिल जलधि तरंगे, और धरा पर रजत बालूका कणों का फैलाव ऊपर से सूरज की सुनहली किरणें – इस स्‍थल की शोभा को असीमित विस्तार देते हैं। दक्षिण की ओर फेनिल समुद्र है समुद्र की उत्ताल लहरें दूर दूर तक शुभ्र वालुकामय सुविस्‍तृत स्‍थलखण्‍ड का विस्‍तार है। चारो ओर फैले हुए हरे भरे बन इसकी शोभा में चार चांद लगाते हैं। चारो ओर प्राकृतिक सौन्दर्य से आच्‍छादित है गंगासागर की पुण्‍यभूमि।

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गंगासागर पाताल (अर्थात नदी और समुद्र से घिरा जल-जंगल परिपूर्ण निम्‍नभूमि क्षेत्र) लोक के अंतिम छोर पर है जहां भगवान विष्‍णु के पांचवे अवतार महा‍मुनि कपिल का प्रादुर्भाव हुआ। ऐसा माना जाता है कि कपिल मुनि महर्षि कर्दम और मनुकन्या देवहुति के यहां पुत्र रूप में अवतरित हुए। कपिलमुनि के उपदेश सांख्‍यदर्शन के रूप में जगत विख्‍यात है। संसार की सृष्टि व जीवात्‍मा का गूढ़ रहस्‍य का तत्‍व उस दर्शन में दिया गया है। इसके बारे में विस्‍तार से फिर कभी।

यहां पर कपिल मुनि का आश्रम है। परंपराओं की माने तो महामुनि कपिल का आश्रम सागर और गंगा के मिलन के पहले से ही प्रतिष्ठित था। पर बारम्‍बार समुद्र द्वारा ग्रास किए जाने के कारण अपना स्‍थान बदलता रहा। हालांकि ईसा के 437 वर्ष पूर्व यहां पर एक प्राचीन मंदिर के अस्तित्‍व की चर्चा मिलती है , पर वह मंदिर सागर के गर्भ में समा गया। वर्तमान अवस्थित मंदिर का निर्माण सन 1974 हमें हुआ। यह सांतवां मंदिर है।

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श्री गंगासागर संगम प्रवाह में गोता लगाकर और सिद्धेश्‍वर श्री कपिलमुनि का भाव भरे नेत्रों से दर्शन और अनुराग भरे हृदय से अर्चन वन्‍दन और आत्‍मनिवेदन कर हमने अपने मानव जीवन को कृतार्थ किया।

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इस मंदिर में कई विग्रह है। कपिल मुनि पद्मासन में अपने आसन पर आरूढ़ है। उनका श्रीमुख जटाओं से मंडिंत है। उनके बांए हाथ में कमण्‍डल है। दाहिने हाथ में जपमाला। शीर्ष भाग में बने पंचनाग छत्‍त्रवत् उनपर छाया करते हैं। यह मूर्ति हमें संदेश देती है कि अगर कैवल्‍य या मुक्ति की कामना करते हो तो जप, तप, अराधना में लीन रहो। भगवान कपिल के दाहिने भाग में मां गंगा की मुर्ति है। ये चतुर्भुजा और मकरवाहिनी है। इनके हाथ शंख, चक्र, रत्‍नकुंभ एवं वरमुद्रा है। देवी के अंक में महातपस्‍वी भगीरथ विद्यमान है। देवी गंगा से कुछ दूरी पर विराजमान है हनुमान जी, जिनके एक हाथ में गदा और दूसरे में गंदमादन पर्वत है। कपिलदेवके बाएं में राजा सगर है। इनके बाएं में अष्‍टभुजा सिंहारूढ देवी विशालाक्षी अधिष्ठित है। मां के करकमलों में त्रिशुल, खड्ग चक्र आदि आयुध और कमल पुष्‍प हैं। इनके बाई ओर इन्‍द्रदेव है जिनके दाहिने हाथ में धनुष, बाएं में यज्ञ के अश्‍व की वल्‍गा एवं बाएं स्‍कन्‍ध में तरकस है। इन्‍द्रदेव के बगल में देवाधिदेव महादेव है। साथ ही राधा-कृष्‍ण के युगल की मूर्ति भी है। सभी मूर्तियां सिन्‍दूर से मण्डित हैं। प्रतिदिन पांच बार मंदिर में पूजा होती है। रात 2 ½ बजे मंगल आरती और 4 बजे श्रृंगार आरती, दोपहर 2 बजे भोग आरती, संध्‍या 7 बजे संध्‍या आरती एवं रात 8 ½ बजे शयन आरती|

गंगा सागर आज नित्‍यतीर्थ बन चुका है। फिर भी मकर सक्रांति के अवसर पर गंगा सागर तीर्थस्‍थान परम पुण्‍यादायक है। त्रिपथगामिनी (त्रिपथ अर्थात इड़ा, पिंगला, सुषुम्‍ना ग्रंथियों) गंगा भगीरथ के अभूतपूर्व तपस्‍या से इहलोक में अवतीर्ण हुई जो मानवमात्र के लिए मुक्तिप्रदायिणी व कल्‍याणकारी है। गंगा के पृथ्‍वी पर आने की अनेक कथाएं प्रचलित है। इसमें एक है राजा सगर के साठ हजार पुत्रों की महामुनि कपिल की क्रोधग्नि से जलकर भस्मिभूत हो जाना और सगर के पौत्र अंशुमान द्वारा भगीरथ के अक्‍लान्‍त परिश्रम और चेष्‍टा के बाद उनका उद्धार करने की प्रक्रिया में गंगा का पृथ्‍वी पर लाया जाना। इसकी भी विस्‍तृत चर्चा फिर कभी।

आज तो यही कहूँगा कि त्रिपथगामिनी स्‍वर्ग से मंदाकिनी, पाताल से भगवती और जो धारा मर्त से अवतीर्ण हुई वह भगीरथ द्वारा आनयन होने के कारण भागीरथ नाम से आख्‍यात, त्रिलोकपावनी गंगा का नाम स्‍मरण करने में समस्‍त पाप कट जाते हैं। जिनके दर्शन और स्‍थान से सप्‍तकुल पवित्र हो जाते हैं। गंगासागर तीर्थ की महिमा अपरिसीम और अनिर्वचनीय है।

इन धार्मिक आध्‍यात्मिक बातों के अलावा गंगा भारतवर्ष की चेतना, दर्शन और संस्‍कृति की धरोहर है। इसके तट पर न सिर्फ ऋषि, मुनि, साधक, तपस्‍वी अपनी साधना के चरम शिखर पर पहुंच कर सिद्धि प्राप्‍त किए बल्कि इसके तटभूमि में अनन्‍त याय योज्ञ शास्‍त्र पाठ, पुष्‍यानुष्‍ठान का आयोजन होते रहा है।

सागरद्वीप ब्रहम्‍पुत्र के डेल्‍टा के दक्षिण-पश्चिम छोर पर है। इस का क्षेत्रफल 205 वर्ग किमी है। इसके 9 ग्रामपंचायत है। 2001 की जनगणना के आधार पर यहां की जनसंख्‍या 1,85,630 थी। यहां पर एक महाविद्यालय, 6 उच्‍च माध्‍यमिक विद्यालय, 13 माध्‍यमिक विद्यालय, 12 निम्‍न माध्‍यमिक विद्यालय, 123 प्राथमिक विद्यालय, 16 गैरसरकारी के.जी एवं नर्सरी स्‍कूल, 63 शिशु केंद्र है। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि स्‍थानीय सरकार यहां पर शिक्षा के प्रति कितनी सजग है। इसका परिणाम है कि यहां की साक्षरता 90 प्रतिशत से भी अधिक है। स्‍वास्‍थ्य के प्रति भी इस जनविरल क्षेत्र में काफी जागरूकता दिखी। यहां एक ग्रामीण अस्‍पताल, प्राथमिक स्‍वास्‍थ्य केंद्र एवं 35 उप स्‍वास्‍थ्‍य केंद्र हे। पेय जल की भी व्‍यवस्था की गई है। 600 नलकूप, 5 बोरिंग है खेल के दर्जन भर मैदान है। 7 सरकारी बैंक है। कृषि समिति, दुग्‍ध समिति मत्‍सय समिति आदि यहां की सक्रियता संबंधी जानकारी देते हैं। 35 किलोमीटर की पिचढलाई सड़क और 120 किलोमीटर की ईटं निर्मित सड़क यहां के परिवहन व्‍यवस्‍था को गति प्रदान करते हैं।

विधुत परिसेवा की कमी है। 17 डिजल इंजिन चालित जेनरेटर से प्रतिदिन शाम 5.30 से 9.30 तक 4 घंटा तक बिजली रहती है। सौरशक्ति से 10 गांवों को बिजली पहुंचाई जाती है। पवन चक्की से भी ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है।

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यहां पर बिजली पहुंचे इसकी परियोजना पर काम चल रहा है। और अनुमान है कि दो वर्षों में यह काम पूरा हो जाएगा।

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दोपहर दो बजे तक हमारी वापसी की यात्रा शुरू हो चुकी थी। जलयान द्वारा कोचु‍बेडि़या से लट नं. 8 वापस आए। वहां से पुनः अपनी गाड़ी से शाम छह बजे तक कोलकाता के अपने आवास तक पहुंच गए।

लौटते समय मन में यही भाव थे –

मातः शान्‍तति शम्‍भुसंगमिलिते मौलो निधायां‍जलिं।

त्‍वत्तीटे वपुषोsवसानसमये नारायणांध्रिद्वयम्।।

त्‍वन्‍नाथ समरतो भविष्यति मम प्राणप्रयाणोत्‍सवे।

भूयाद्भक्तिरविच्युता हरिहराद्वैतात्मिका शाश्‍वतौ।।

हे मातः! तुम शंभु का निजस्‍व हो, उनके अंग से एकात्‍म हो। तुम्‍हारा प्रसाद जिसे मिला, वह मृत्‍युंजय हुआ। तुम्हारे तीर पर मरण के वरण से आनन्द और मुक्ति का लाभ होता है। इसी कारण मस्‍तक पर करबद्ध प्रणाम करके कहता हूँ--- मां, मेरे अन्तिम समय में तुम्‍हारा पुण्‍य सलिल मेरे शरीर पर पडे़, मैं नारायण का नाम लेता-लेता एवं तुम्‍हारा स्‍मरण करता-करता ही अद्वैत हरिहरात्‍मक ब्रह्मा की परमभक्ति में, अचला भक्ति में लीन हो जाउँ। मुझे परमगति की प्राप्ति हो।

प्रस्तुतकर्ता

मनोज कुमार

Wednesday, March 31, 2010

बड़ सुख सार पाओल......... गंगा की गोद में !


बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे !

हम भी कुंभ नहा आए! हरिद्वार के हर की पौड़ी में डुबकी लगाना जीवन का सबसे अहम अनुभव था। आप इसे मेरीधर्मांधता कहें या अस्था का पगलपन - पर हरिद्वार में गंगा तट पर उमड़ी लाखों की भीड़ आपके सभी तर्कों कोखोखला साबित कर देगी।
जब मैं गंगा के निर्मल जल में डुबकी लगा रहा था तो मेरे मन में मैथिल कवि विद्यापति की पन्क्तियां अनवरत गूंजरही थी ...

बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे !
छारैते निकट नयनन बह नीरे !!

एक अपराध छेमब मोर जानी !
परसल माय पाय तुअ पानी !!

कि करब जप-तप-जोग-ध्याने !
जनम कृतारथ एकही स्नाने !!

कर जोरि विनमओ विमल तरंगे !
पुनि दर्शन कब पुनमति गंगे !!

बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे !
छारैते निकट नयनन बह नीरे !!


हमारे प्राचीन ग्रंथों में कुंभ स्नान का महत्व का विस्तार से वर्णन किया गया है। भागवत के अनुसार अमृत दुर्वासा मुनि के शाप के कारण समुद्र के बीच मे घड़े मे़ सुरक्षित रह्ते हुए समा गया था। स्कंद पुराण के अनुसार एक बाररक्षसों और देवताओं में युद्ध छिड़ा। इस युद्ध में असुर पक्ष की विजय हुई। सारे देवता गण भगवान विष्णु के पासपहुंचे। उन्होंने भगवान विष्णु से अपने छीने हुए राज्य के वापसी की प्रर्थना की। विष्णु भगवान ने देवताओं कोसमुद्र मंथन की सलाह दी। उनकी सलाह पर अमल हुआ। समुन्द्र मंथन हुआ। इस मंथन में मंदराचल पर्वत मथानीके रूप में तथा नागराजा वासुकि रस्सी के रूप में प्रयुक्त किए गए। उसी घड़े को हाथ मे़ लिए समुद्र मंथन के समय धन्वन्तरि (विष्णु) प्रकट हुए थे।

मंथन से अमृत कलश निकला। उस अमृत कलश को पाने के लिए छीना-झपटी शुरु हुई। इन्द्र के पुत्र जयंत इसअमृत कुंभ को लेकर भागे। भागते वक़्त उनके कलश से अमृत चार स्थानों पर छलक कर गिरा। ये स्थान हैंहरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयाग। इसी कारण से कुंभ पर्व मनाया जाता है।

कुंभ के अवसर पर हरिद्वार शहर आध्यात्मिक गुरुओं, साधु-संतों की भीड़, होर्डिंग्स, पोस्टर, बैनर आदि से अटापड़ा है। प्रवचन, व्याख्यान की होड़ है। और हो भी क्यों नहीं! वर्षों से ली रही इस परंपरा (कुंभ) में मान्यता हैकि तैंतिस करोड़ देवी-देवता और अट्ठासी लाख ऋषि मुनि उपस्थित होते हैं। पुण्य नक्षत्र की घड़ी में वे पावन गंगामें डुबकी लगाते हैं। अब ऐसे माहौल में कोई डुबकी लगाए तो उसके पापों का क्षय भी तो होगा ही।
हरिद्वार में गंगा की कलकल ध्वनि के साथ जुटी भीड़ के कोलाह से अद्भुत समां बंधता है। कुछ लोग पर्यावरणऔर प्रदूषण को लेकर चिंतित नज़र आते हैं। कुंभ सेवा समिति भी है। इस बात की उद्घोषणा निरंतर होती रहती हैकि आप प्लस्टिक के सामान लेकर गंगा तट पर जाएं। साबुन-तेल आदि से स्नान करें।

और
वह भी उपाय भी है जिसके बारे में कुछ दिनों पुर्व ज्ञान जी के एक पोस्ट में देखा था। उसकी तस्वीर भी उठालाया।

गंगा के तट पर शाम को होने वाली आरती अद्भुत और रोमांचक है। एक साथ बजते घंटे और घड़ियाल और मनोरमदृश्य देख-सुन कर हम तो धन्य हो गए।
गंगा के तट पर पूजा-पाठ, हवन, पिंडदान, दीपदान, आदि हमारे आस्था और परंपरा के प्रतीक हैं। इन्हें कर्मकांडकहकर हम अपनी आधुनिकता की विद्वता का परिचय तो दे सकते हैं पर क्या आपको लगता नहीं कि हम पश्चिमके अंधानुकरण में बहुत कुछ खोते जा रहे हैं --और इसके एवज़ में पाया क्या है?

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