गंगा मै तेरे कितने पास होते हुए भी दूर हू,
याद आता है वो बचपन
जब मन किया ,खेल लिया करते रेत में,
बनाते घरौदें ,मंदिर ,मूरत
फिर पत्थरों का पुल न बना पाने की कोशिश
रूला देती सबकों
फिर भी नन्हें हाथों से बना ही लेते ,रेत से
गंगा मै तेरे पास होते हुए भी दुर हूं.........!
तेरे विशाल प्रवाह से बच,
किनारे-किनारे तैरने की
असफल कोशिशे
कैमरा ले उतार लेना तेरे
छायाचित्र ,खुद को समझ
एक माडल पानी में खिचवाना
अपने चित्र
गंगा मै तेरे कितने पास होते हुए भी दूर हूं.........!
बहू बन कर देती हूं
मंगलद्वीप प्रजवल्लित
और बहा देती हुं तेरे
प्रवाह में कितने ही अमंगल
दूर होने पर ,तेरी लहरें
गुंजती है बस संगीत बनकर
भूल जाती हूं अपने सारे दर्द
जल लेकर अंजुली भर
गंगा में तेरे कितने पास होते हुए भी दूर हूं..............!
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6 comments:
गंगा के पानी छूने पर जो एहसास होता है वैसे ही आपकी कविता पढकर एहसास हुआ .......
गंगा मैं तेरे कितने करीब हूँ...
गंगा मैं तेरे कितने पास होते हुए भी दूर हूं..............!
बहुत सुंदर !
गंगा के पास या दूर होने का अहसास ही अपने आप में एक रचना है! बहुत खूबसूरत लिखा. जारी रहें.
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Till 25-09-09 लेखक / लेखिका के रूप में ज्वाइन [उल्टा तीर] - होने वाली एक क्रान्ति!
बहुत खूबसूरत एहसास लिए हुए है आपकी रचना....अच्छा लिखती हैं आप
आप सभी का शु्क्रिया जो इतने अच्छे कमेंट आपने दिए हम इन्सान इस लायक कहां जो इस जीवनदायिनी नदी पर कुछ कह सके....... मेरी आगे की पोस्ट में आपकों गंगा के बारें में जो एक नदी ही नही संस्कृति भी है पढनें को मिलेगा......
सही कहा आपने गंगा सिर्फ नदी नही है
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