हरिद्वार से ऋषिकेश के मध्य वीरभद्र क्षेत्र अत्यंत ऐतिहासिक महत्व का है।ऎसे ही महत्वपूर्ण स्थल पर त्रिमुखीमहादेव एंव प्रसिद्व वीरभद्र मंदिर स्थित है।
वीरभद्र क्षेत्र का इतिहास: ज्ञात हो कि वीरभद्र का इतिहास दो हजार साल से भी पुराना है। 1973-75 में एनसी घोष ने यहां पुरातात्विक खुदाई की थी उसमें कुषाणकाल के मृत्युपात्र,ईटें,कुषाण सिक्के व पशुओं की जली हुई अस्थि यों के अवशेष प्राप्त हुयें थे ।यह भी ज्ञात हुआ था कि यहां 100ई. के मध्य मानव सभ्यता संस्कृति सतत विघमान थी ।यह चित्र है त्रिमुखीमहादेव मंदिर, का जो आज से लगभग 12 साल पुराना है क्योकि उस समय जैसा वीरभद्र क्षेत्र आज है वैसा नही था आज सीमाडेन्टल कालेज है, कई आश्रम है, टिहरी विस्थापितों की पुननिर्वासित बस्ती है कहने का तात्पर्य 2000सालों के उपरान्त यह बस्ती फिर बसी है। गुप्तकाल में यह प्रसिद्व शैवर्तीथ भी था और यह क्रम 800 ई.अर्थात उत्तर गुप्तकाल तक सतत् चलता रहा था।जिस समय चीनी यात्री हृवेनसांग मो-यू-लो भोर गिरी का भ्रमण कर रहा था उस समय यहां भी बौद्व हिन्दू धर्म अनुयायियों के मठ मंदिर युक्त एक महानगर था।
त्रिमुखीमहादेव मंदिर :इस मंदिर की पौराणकिता वीरभद्रेश्व महादेव मंदिर से जुडी है जब हरिद्वार स्थित कनखलमें दक्ष प्रजापति के यज्ञ कुण्ड में शिव पत्नी सती ने स्वंय को भस्म कर लिया तो शिव कुपित हो उठे उन्हें शांत करने के लिये देवताओं ने शिव के स्थान से थोडी दूरी पर उन्हें प्रसन्न करने के लिए गहन स्तुति की इस पर शिव प्रसन्न व शांत हुये ,वह सौम्य रूप में आ गये और अपने त्रयम्बकेशवर रूप में अर्थात तीन मुखों से तीन देवताओं ब्रहृमा,विष्णु, इन्द्र को आर्शीवाद दिया । तत्पशचात कनखल जाकर देवताओं को पुर्नजीवित किया तथा यज्ञ संपूर्ण कराया ।त्रिमुखीमहादेव मंदिर वह स्थान है जहां ब्रह्मा,विष्णुव इन्द्र को भगवान शिव के त्रिम्भकेशवर रूप का प्रतीक शिला त्रिमुखालिंग इस मंदिर की मुख्य विशेषता है।भगवान शिव का लिंग प्रतिमा रूप में निष्कल लिंग एंव मुखालिंग दोनो ही प्रचलित है।गढवाल में प्रचलित शिव की लिंग प्रतिमा रूप में सर्वाधिक निष्कल लिंगों का ही प्रचलन है ओर अधिकांश मंदिरों में यही रूप दिखायी पडता है।
मुखालिगों में शिव लिंग विग्रह और पुरूष-विग्रह का समन्वय है । इसी कारण इन्हें मिश्र श्रेणी में रखा गया है । एस.राजन अपनी पुस्तक इंडियन टेम्पुल स्टाइल में लिखते है कि,"सर्वप्रथम ज्ञात लिंग मुखालिंग प्रकार के है। एक मुख वा पंचमुखालिंग लिंगों की प्रप्ति मंदिरों में हई है किंतु मुखालिंग प्रतिमा यहां पर दुर्लभ व अदभुत है,जो मुखालिंग उत्तराखण्ड के मंदिरों में प्राप्त होते है।
मुखालिंग भगवान शिव के सौम्य रूप के घोतक है ।जो कि ब्रह्मा,विष्णु और इन्द्र को एक साथ वरदान देने का प्रतीक है । सुंदर शिलामुखालिंग गुप्तकालीन है ।शिव के शांत मुख पर सती का विरह भी देखा जा सकता है।वास्तुकला की दृष्टि से इसका निर्माण पहली या दूसरी शताब्दी का माना गया है ।चूंकि शिवलिंग के मुखालिगों में चर्तुमुखालिंगों,एकमुखालिंग एंव पंचमुखालिंग लिंगों के र्दशन भारत के अन्य मंदिरों के गर्भगृहों में मिलते है ।त्रिमुखालिंग इसको वास्तव में बिल्कुल अनोखा एंव जिज्ञासु बनाता है ओझा
निबन्ध संग्रह भाग एक पृष्ठमें कहा गया है।कि "यह मुर्तियां अनन्त ब्रमाण्ड रूप शिवलिंग की थाह लेने के लिए ब्रहृमा विष्णु का नीचे की ओर जाना सुचित करती है ।" डा0 यशवंत घटोच ने इसे शैव-सम्प्रदाय की उच्चता का सूचक कहा है ।
प्राचीन समय से ही यह स्थल सिद्वों की तपस्थली रहा है गुप्तकाल में प्रमुख शैवर्तीथ होने के कारण बडे-बडे सिद्व पुरूष यहां भगवान शिव की अराधना व तप किया करते थे। इस स्थान पर कई बार दैवीय अनुभूति होने की बात सुनने में आती है । बहुत पहले यह भी सुनने मे आता था कि एक नाग भी यहां र्दशन करने आता था । जो सभ्यता व संस्कृति लुप्त हो गयी थी सिर्फ मंदिर ही शेष था व खेतों में प्राचीन अवशेष व छोटे-छोटे मंदिर इस स्थान पर मिलते थे नवनिर्माण के समय इनका सही रूप में संरक्षण नही हुआ न जाने कितनी ही दुलर्भ पुरातात्विक महत्व की चीजें नष्ट हो गयी केवल कुछ हिस्सा ही पुरातत्व विभाग ने संरक्षित किया है । कितने दुख की बात है एक तरफ तो माल कल्चर हम अपना रहे है, अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए कितना ही धन अपव्यय कर देते है ।दुसरी तरफ इस ओर ध्यान जाता ही नही है ।वास्तव में ऐतिहासिक धरोहरो की उपेक्षा एक अतुलनीय हानि है । इन अमूल्य प्राचीन सभ्यताओं की वास्तुकला के नमुने व संस्कुति को दर्शाने वाले ऐतिहासिक स्थलों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है ।
प्राचीन समय से ही यह स्थल सिद्वों की तपस्थली रहा है गुप्तकाल में प्रमुख शैवर्तीथ होने के कारण बडे-बडे सिद्व पुरूष यहां भगवान शिव की अराधना व तप किया करते थे। इस स्थान पर कई बार दैवीय अनुभूति होने की बात सुनने में आती है । बहुत पहले यह भी सुनने मे आता था कि एक नाग भी यहां र्दशन करने आता था । जो सभ्यता व संस्कृति लुप्त हो गयी थी सिर्फ मंदिर ही शेष था व खेतों में प्राचीन अवशेष व छोटे-छोटे मंदिर इस स्थान पर मिलते थे नवनिर्माण के समय इनका सही रूप में संरक्षण नही हुआ न जाने कितनी ही दुलर्भ पुरातात्विक महत्व की चीजें नष्ट हो गयी केवल कुछ हिस्सा ही पुरातत्व विभाग ने संरक्षित किया है । कितने दुख की बात है एक तरफ तो माल कल्चर हम अपना रहे है, अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए कितना ही धन अपव्यय कर देते है ।दुसरी तरफ इस ओर ध्यान जाता ही नही है ।वास्तव में ऐतिहासिक धरोहरो की उपेक्षा एक अतुलनीय हानि है । इन अमूल्य प्राचीन सभ्यताओं की वास्तुकला के नमुने व संस्कुति को दर्शाने वाले ऐतिहासिक स्थलों का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है ।
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12 comments:
असाधारण शक्ति का पद्य, बुनावट की सरलता और चित्रों से सजा पृष्ठ सयास बांध लेते हैं, गंगा के क़रीब जाकर दर्शन करहे के कुतूहल पैदा करते हैं।
मंदिर भले प्राचीन हो न हो, शिवलिंग अवश्य ही प्राचीन है. बहुत बहुत आभार.
आप का धन्यवाद कमेंट के लिए,मंदिर भले ही प्राचीन न हो पर शिवलिंगप्राचीन है वो इसलिए क्योकि प्राचीन समय यह स्थान शैव र्तीथ था जिसमें प्रसिद्व शिव मंदिर के अलावा बस्ती भी थी जो कलान्तर में नष्ट हो गयी मुगलों के आक्रमण भी हुए जिसके बारे में आगे की पोस्टों में बताउगी ......नजर डालते रहिएगा ।
http://swastikachunmun.blogspot.com
शिवंलिग के उपर पक्कें शेड का निर्माण तब कराया जब इसके बारे में 1997 में दैनिक जागरण में इसके बारे में आलेख प्रकाशित हुआ हमारें धर्मस्थल के अर्न्तगत उस वक्त जनमानस को मैने इस महत्वपूर्ण जगह के बारे में बताया था मेरा प्रयास आज भी जारी है।.....
कुशाण काल के अवशेष तो अब बहुत कम देखने को मिलते है । जो है सो उपेक्षित है मूर्तियाँ मथुरा के संग्रहालय मे है ।
इतिहास का विद्यार्थी नहीं रहा पर दुनिया में कुछ भी पढो, जो आनद आपके और इसी तरह के आलेखों को पढ़ने में आता है वह बयां करने को अधिक शब्द चाहिए. बहुत अच्छा !
किशोर जी
शुक्रिया, नवीन तथ्य व सच को बताना, जन मानस को मेरा उद्देश्य हमेशा रहा है आपका अच्छा लगा इससे मेरा हौसला बढ़ा है.....
नारी ब्लॉग पर आपका कमेन्ट देखा ...कुछ हद तक उससे सहमत भी हूँ ..संपर्क का और कोई जरिए नहीं हो पाने के कारण यही कमेन्ट दे रही हूँ ...
इस बहाने आपका ब्लॉग भी देखने को मिल गया ...इतिहास और पर्यटन में रूचि होने के कारण आपके आलेख भा गए हैं ...बहुत शुभकामनायें ...!!
mahatvapoorn aalekh.chitron se shivling kee praacheenta spasht hai.devnaagri men comment nahin kar paa raha hun varna vistaar se tippani karta.
aalekh ke liye aabhaar.
Apke jariye hamaare bhi in kshetro ke darshan ho gaye abhar.
पौराणिक व स्थानीय जन श्रुति के अनुसार यह स्थान शिवजी के मुख्य गण-वीरभद्र- का स्थान(कैलाश राज्य का एक क्षत्रप) है जिसने सती के दक्ष यग्य में आत्म-दाह कर्ने पर शिवजी की आग्या पाकर यग्य विध्वन्स किया था।
गुप्ता जी कामेंट के लिए धन्यवाद आप सही है यह स्थान वीरभद्र का स्थान है जिसे शिव ने यही पर प्रकट किया था मेरी अगली पोस्ट में आपको उस जगह की तस्वीरे व मंदिर दोनो के बारे में सविस्तार वर्णन मिलेगा उम्मीद है आप निराश नही होगे।.....
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