Wednesday, January 13, 2010

. बूमरैंग

बारिश है. लगभग ग्यारह बजे शुरु हुई. अचानक याद आया कि इन बीस दिनों के प्रवास में यह दूसरी बार हो रही है…. दोनों बार बारिश से पूर्व देखा प्रकृति का एक मजेदार नजारा याद आ गया. अपनी भाषा है प्रकृति की, अपने नियम हैं, अपने कायदे-कानून. और उन नियमों - कायदों का उल्लंघन पलट कर मारता है, प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने वाला अपने-आप दंड पा जाता है. जैसे कोई अनाङी हाथों से होता बूमरैंग. बूमरैंग शब्द को यहाँ जिस अर्थ में प्रयोग कर रहा हूँ, वह बता देना ठीक रहेगा, वरना शायद समझ की गाङी यहीं अटक गई, तो आगे प्रकृति के नियमों को मानने/स्वीकारने में दिक्कत आ सकती है. एक ऐसा शस्त्र जो प्रहारकर्ता पर ही पलटकर प्रहार कर दे, और बचने का कोई उपाय भी ना हो. जैसे वर्ल्ड-ट्रेड-सेन्टर का ध्वस्त होना. आतंकवाद का वह हथियार तो स्वयं अमेरिका का ही बनाया और चलाया हुआ था, उसीको मार गया- बूमरैंग! अब कोई यह समझने की/ सहानुभूति दिखाने की भूल भी ना करे कि उसमें निर्दोष जनों की जानें गई. उसमें जितने लोग थे, वे कौन थे? वहाँ क्या कर रहे थे? सर्वे भवन्तु सुखिनः का पाठ या कोई ऐसा ही विश्व-कल्याणकारी चिन्तन नहीं चल रहा था वहाँ! बल्कि शोषण चल रहा था. विश्व मानव को ठगने की, उसका खून चूसकर अमेरिकीयों को पिलाते रहने की कोई व्यापारिक साजिश चल रही थी. व्यापार चल रहा था, और व्यापार अभी शोषण का ही कानून-सम्मत रूप है. कानून- मानव कानून बनाता है अपनी सुविधा का ध्यान रखकर. जो ज्यादा शक्तिशाली है, कानून उसकी सुविधा के अनुसार बनता-बिगङता-बदलता रहता है. मगर प्रकृति का कानून शाश्वत नियमों की अकाट्य श्रृँखला है. मानव उस श्रृँखला को तोङने में जुटा है. चालाकी भी करता है. चालाकी करता है कि वह प्रकृति को बचाना चाहता है. जैसे अभी कोपेनहेगन में भी वही चली… बगुला भक्ति का नाटक चला. अब यह तो आज बच्चे भी समझ जाते हैं, प्रकृति के तो अनन्तानन्त कान-हाथ-पाँव हैं, उसका अपना गणित है, उसकी स्वीकृतियाँ-अस्वीकृतियाँ हैं.
जैसे प्रकृति हिंसा या विरोध पसन्द नहीं करती. कोई एक इकाई दूसरे की हिंसा करे, उसके क्रममें बाधक बने, यह प्रकृति की मान्य व्यवस्था नहीं है. इसीको मन्त्र-दृष्टाओं ने अहिंसा परमो धर्मः कह दिया. अहिंसा नियम है प्रकृति का, तो जो इस नियम को तोङता है, वह दण्डित हो जाता है, दुःख पाता है. प्रकृति में किसी नकारात्मक भाव के लिये स्थान नहीं है. शोक, भय या दुःख प्रकृति की व्यवस्था में हैं ही नहीं. तभी तो दुख देने वाला दिखाई नहीं देता, या कारण कोई भी मान लिया जाता है… पर मूल कारण प्रकृति की अपनी व्यवस्था के विरूद्ध मानव की गतिविधियाँ है. प्रकृति व्यवस्था में है. इसी व्यवस्था के दो सूत्र इस आलेख का विषय हैं- एक सूत्र यहीं, मेरी आँखों के सामने है, दूसरा मन-मष्तिस्क को मथता-गंगा के अस्तित्व का प्रश्न. और दोनों परस्पर इतने सम्बद्ध हैं कि एक के समझने से दूसरा समझ लिया जाता है.
हाँ, तो बारिश….दो बार… दोनों के साथ जुङा एक संकेत… प्रकृति की सूक्ष्म भाषा….सुधिजन पकङ सकें, ऐसी शुभ आशा.
कैंटीन में नाश्ता करके मैं मुख्य द्वार की तरफ़ बढ रहा था. मुख्य द्वार से अन्दर आने वाली सङक दो बागों में बटी है. दाहिनी तरफ़ की सङक तो गाङियों एवं मानवी पदचापों से व्यस्त रहती है, किन्तु जंगल से सटी बाँयी सङक वनचरों के लिये निरापद रहती है. सदा की तरह मैं इसी सङक पर नजर झुकाये चलता हुआ एक सुन्दर पतंगों के जोङे को मैथुन-रत देखता हूँ. मेरी पदचाप से दोनों बचने की कोशिश करते हैं. एक सीधा गति करता है, दूसरे को उल्टी गति लेनी पङती है, तो वह घिसटता सा लगता है. चटक नारंगी रंग पर लाल-काला धब्बा… कई धब्बे…और छोटी-छोटी चमकती आँखे. देखते ही लग जाये कि बङा जहरीला पतंगा है. किन्तु सुन्दर कितना है! इसके इतने चटक रंग कैसे बन गये! और अभी, इस मैथुन-रत अवस्था में इनकी सुन्दरता में जैसे चार चान्द ही लग गये हैं….. इनको बचाने की धुन में मेरा उठा पाँव कुछ क्षण उठा ही रह जाता है….कि यह दूसरा जोङा….तीसरा,चौथा… अरे! यह तो पूरी सङक ही अटी पङी है इन रेंगते-बचते पतंगों से! अपना पाँव दूसरे पाँव पर रखकर देखने लगा. ऐसा लगा जैसे कम्प्युटर पर कोई पृष्ठ खुलता हो- पहले धुंधला, अस्पष्ट और छितरा- छितरा सा, फ़िर धीरे से स्पष्ट होता…. अरे! यह दृष्य तो मैं पहले देख चुका हूँ…. सुबह-सुबह की सैर के समय…. ऐसे ही पाँव अटक गये थे….! इतनी बङी सँख्या में आनन्द मग्न जोङे. यह तो जैसे कोई महोत्सव ही चल रहा है. इतनी बङी सँख्या में मादा अंडे देगी! कितने पतंगे बन जायेंगे! और ये काटते हैं तो बङी जलन होती है. इनको मसल दो तो हाथ भयंकर गंध से सरोबार हो जाते हैं, मितली सी आने लगती है! … पर हैं कितने सुन्दर! ….उस दिन भी इतनी ही सँख्या में थे. शायद उस दिन भी बारिश आई थी………हाँ, उस दिन भी बारिश आई थी…. और बारिश के बाद ही पतंगों की बारात! चारों और पतंगे ही पतंगे दिखे. अल्पजीवी हैं, २४ या ४८ घंटे में ही सारा आनन्द-उत्सव हो जाता है इनका. देखो, कैसे मगन हैं एक दूसरे में! …. अभी अंडे…अभी बच्चे…. बरसात…इनका नृत्योत्सव…. और बस! सब फ़टाफ़ट! मगर ये बारिश आने की सूचना भी तो देते हैं. दोनों बार देखा है. इनका सामूहिक रूपसे रति-रत होना, और दो घंटे में बारिश! ….. बारिश होने के प्रयोजन में इनका यह उत्सव शामिल है. हाँ, प्रकृति में निष्प्रयोजन कुछ भी नहीं होता. हर घटना प्रयोजन सहित होती है. और इसकी हर इकाई परस्पर पूरक होती है. एक कङी टूटी तो पूरी श्रृँखला छिन्न-भिन्न हो जाती है. एक परमाणु से लेकर पूरे ब्रह्माण्ड तक और एक सूक्ष्मतम जन्तु से लेकर मानव तक… सब परस्पर पूरकता के सूत्र से जुङा है. कहीं कोई विरोध नहीं है, कहीं कोई संघर्ष नहीं है. संघर्ष की सारी आयोजना मानव के भ्रम से निकली, और इसका खामियाजा स्वयं मानव को ही भुगतना पङ रहा है.
जैसे रसायनिक खाद और कीटनाशकों ने खेत और खेती की सारी श्रृँखला को ही तहस-नहस कर दिया, और परिणाम सभी को भुगतना पङ रहा है. हाईटेक में बैठे विज्ञान-वेत्ताओं को ये जहरीले पतंगे खत्म करने की मनमें आई, तो बारिश का एक और प्रयोजन खतम. जाने कितने प्रयोजन हमने पहले ही खत्म कर दिये हैं. तभी तो ऋतु-चक्र बदल गया है. न समय पर मौसम बदलता है, न पूरा हो पाता है. गर्मी-सर्दी-बरषात सब अस्त-व्यस्त. तो मानव का अस्त-व्यस्त होना क्या बङी बात हो गई! सब जुङा है परस्पर. सब सम्बद्ध!
मगर मानव अभी नहीं समझेगा! इन पतंगों को नष्ट करने का रसायन बन ही रहा है कहीं ना कहीं. जहरीला और अनुपयोगी होने के नाम पर इनके विनाश का कोई विरोध भी नहीं होगा. ज्यादा दिन नहीं बचेंगे ये पतंगे. जो मानव गंगा जैसी जीवन दायिनी पवित्र नदी तक को नहीं छोङता…. गाय जैसे निरीह और अमृत-प्रदायी मातृ-तुल्य प्राणी को काट कर खा लेता है, उससे ये पतंगे क्या दया की उम्मीद करेंगे?
पर प्रकृति नियम से चलती है. चतुर तीरंदाज अपने ही तीर से मर जाता है, लोग कहते हैं कि उसकी लाठी चोट करती है, मगर दिखाई नहीं देती. बूमरैंग हो जाता है. बूमरैंग.-- साधक उम्मेदसिंह बैद... sahiasha.wordpress.com

1 comment:

Sunita Sharma Khatri said...

गहन सोच का परिणाम इस आलेख में नजर आता है पर एक अमिट सच प्रकृति के खिलाफ जो चलता है उसका बूमरैंग हो जाता है बूमरैग.........ऎसा सिर्फ आप ही लिख सकते है आभार।

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