राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े की खोज कर लाने का आदेश दिया। ये पुत्र यज्ञ के घोड़े की खोज में निकल पड़े। उन्होंने पूरी पृथ्वी छान मारी, किन्तु यज्ञ के घोड़ा का पता न लग सका। थक हार कर वे अयोध्या वापस लौट आए। उन्होंने राजा को पूरा वृतांत सुनाया। राजा सगर ने उन्हें पाताल लोक में खोजने का आदेश दिया। पुत्रों ने आज्ञा का पालन किया। पाताल लोक में खोजते-खोजते वे एक निविड़, शांत और पवित्र स्थल पर पहुंचे। उन्होंने देखा एक दिव्य साधु अपनी साधना में लीन है। उसी आश्रम में उन्हें यज्ञ का घोड़ा भी दिखा। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। सगर के पुत्रों को लगा कि इसी व्यक्ति ने घोड़े को चुरा कर यहां बांध रखा है। अब चोरी पकड़ी गई है तो युद्ध करने के भय से समाधि लगाने का ढोंग कर रहा है। सगर के पुत्रों को यह थोड़े ही पता था कि यह साधु साक्षात वासुदेव है। सगर के पुत्रों ने यह समझ कर कि घोड़े को महामुनि कपिल ही चुरा लाये हैं, कपिल मुनि को कटुवचन सुनाना आरम्भ कर दिया। राजा के पुत्रों ने कपिल मुनि को चोर चोर कहकर पुकारना शुरु कर दिया उन्होंने तरह-तरह के अत्याचार करना शुरू कर दिया। पर मुनि तो तपस्यारत थे। मुनि की तरफ से कोई उत्तर न पाकर वे क्रोधित हुए। सगर पुत्रों ने महामुनि की समाधि भंग कर दी। इससे महामुनि के क्रोध का पारावार न रहा। आग्नेय नेत्रों से उन्होंने सगर पुत्रों को देखा। अपने निरादर से कुपित हो चुके महामुनि की क्रोधाग्नि ने सगर के साठ हजार पुत्रों को जलाकर भस्म कर दिया!
इधर शोक में डूबे राजा सगर के व्याकुलता की सीमा न रही। न पुत्र लौटे, न ही यज्ञ का घोड़ा। उन्होंने असमंज के पुत्र अंशुमान को यज्ञ का घोड़ा और साठ हजार पुत्रों का पता लगाने को कहा। अंशुमान आज्ञा का पालन करने हेतु निकल पड़ा। अंशुमान ढूंढते-ढूंढते पाताललोक में महामुनि कपिल के आश्रम पहुंचा। वहां पर मुनि को साधनारत देख हाथ जोड खड़े रहे। जब महामुनि का ध्यान टूटा तो अपना परिचय देकर अपने आने का कारण और उद्देश्य बताया। अंशुमान की विनयशीलता एवं मृदु व्यवहार ने महामुनि कपिल को प्रभावित किया। उन्होंने सारी घटना अंशुमान को बताया। यह सुनते ही अंशुमान का दिल बैठ गया। दुख, व्यथा और आंसू भरे नयनों से अंशुमान ने मुनि को प्रणाम किया और बोले कि मुने! कृपा करके हमारा अश्व लौटा दें और हमारे दादाओं के उद्धार का कोई उपाय बतायें।
ऋषि ने कहा भष्म में परिवर्तित हो चुके सगर के साठ हजार पुत्रों की आत्मा की मुक्ति के लिए त्रिलोक तारिणी, त्रिपथ गामिनी गंगा का पृथ्वी पर अवतरण जरूरी है। गंगा की पुण्य वारिधारा ही सगर के पुत्रों को मुक्ति दिला सकती है। तुम्हारे दादाओं का उद्धार केवल गंगा के जल से तर्पण करने पर ही हो सकता है।
राजा सगर की पत्नी सुमति या शैव्या गरूड़ की सगी बहन थी। पक्षिराज गरूड़ ने भी अपने भांजों के कल्याण के लिए पतितपावनी गंगा के अवतरण की बात ही कही। उन्होने अंशुमान को बताया कि अगर उनकी मुक्त चाहिये तो गंगाजी को पृथ्वी पर लाना पडेगा। इस समय यज्ञ के घोडे को ले जाकर पिता का यज्ञ पूरा करवाओ, इसके बाद गंगा को पृथ्वी पर लाने का कार्य करना।
यज्ञ के घोड़े को लेकर अंशुमान अयोध्या वापस आया। सारी बातों से उसने राजा सगर को अवगत कराया। राजा सगर ने अपने यज्ञ पूरा किया। यज्ञ पूर्ण होने पर राजा सगर अंशुमान को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये उत्तराखंड चले गये। इस प्रकार अपने जीवन का शेष समय उन्होंने गंगा के पृथ्वी पर अवतरण हेतु साधना में लगाया। पर सफल न हो सके।
राजा सगर के बाद उनके पौत्र अंशुमान सत्तासीन हुए। अंशुमान के पुत्र का नाम दिलीप था। दिलीप के बड़े होने पर अंशुमान भी दिलीप को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये चले गये किन्तु वे भी गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफल न हो सके।
अंशुमान के बाद उनके पुत्र दिलीप भी अपनी सारी उर्जा गंगा को मृत्युलोक में अवतरण कराने के प्रयास में लगा दिया। पर सगर, अंशुमान और दिलीप के प्रयास गंगा को पृथ्वी पर लाने में सफलता नहीं दिला पाया।
राजा दिलीप निःसंतान थे। उनकी दो रानियां थी। वंश ही न खत्म हो जाए इस भय से दोनों रानियों ने ऋषि और्व के यहां शरण ले ली। ऋषि के आदेश से दोनों रानियों ने आपस में संयोग किया जिसके परिणामस्वरूप एक रानी गर्भवती हुई।
प्रसव के बाद एक मांसपिण्ड का जन्म हुआ। इस मांसपिण्ड का कोई निश्चित आकार नहीं था। रानी ने ऋषि और्व को सारी बात बताई। ऋषि ने आदेश दिया कि मांसपिण्ड को राजपथ पर रख दिया जाए। ऐसा ही किया गया।
अष्टवक्र मुनि स्नान करके अपने आश्रम लौट रहे थे। राजपथ पर उन्होंने मांसपिण्ड को फड़कते देखा। उन्हें लगा कि यह मांसपिण्ड उन्हें चिढ़ा रहा है। उन्होंने शाप दिया, “यदि तुम्हारा आचारण, स्वाभाव सिद्ध हो, तो तुम सर्वांग सुन्दर होओ और यदि मेरा उपहास कर रहे हो तो मृत्यु को प्राप्त हो।”
ऋषि का वचन सुनते ही मांसपिण्ड सर्वांग सुन्दर युवक में बदल गया। वह युवक चूंकि दोनों रानियों के संयोग से जन्म लिया था इसलिए उसका नाम हुआ भागीरथ।
माता ने भागीरथ के पूवर्जों की कथा सुनाई। भगीरथ चिंता में पड़ गए। किस तरह पूर्वजों का उद्वारा किया जाए? उनके सामने दुविधा थी, एक तरफ सांसरिक बंधन, तो दूसरी तरहफ पूर्वजों की मुक्ति का प्रश्न। उन्होंने पूर्वजों का उद्वारा को श्रेयस्कर समझा। इस हेतु प्राप्ति के लिए राज्य का भार मंत्रियों पर छोड़ वंश-उद्वार के लिए निकल पड़े।
गंगावतरण की यह कथा जारी है अगले भाग में..........
प्रस्तुतकर्ता-मनोज कुमार
No comments:
Post a Comment