शिव की अनेक अशांत मुर्तिया उस वर्ग की है ,जो उनसे संबद्व किसी पौराणिक कथा का चित्रण नही करती अथवा उसमें कथा तत्व अस्पष्ट होता है । इसी तथ्य को लेते हुए इस मंदिर में प्रतिष्ठत बटुक नाथ भैरव रूद्र शिव का महत्वपूर्ण रूप है जो मध्यकाल में यहां प्रचलित हो चुका था । डा0 शिवप्रसाद नैथानी लिखा है कि "कालिकागम (20-25) में प्राचीन काल में पुरनिवेश में इस तरह की कई बातों का ध्यान रखा जाता था जैसे देवतायन बने वह नगाभिमुख हो शिवलिंग और भैरव की स्थापना हो तो वह बस्ती के बाहर हो शमशान घाट दक्षिण में हो आदि ।" यह मंदिर भी इसी क्रम में बस्ती के बाहर तथा शमशान घाट के नजदीक ही है । ऋषि केश के लिए कुब्जाम्रक शब्द ऎतिहासकि एवं पौराणिक है और 2200 वर्ष पहले का माना गया है । कुब्जाम्रक पुरनिवेश होने के कारण यह मंदिर लगभग इतना ही पुराना है । यह बात जरूर ध्यान देने योग्य है कि वर्तमान में बने इस मंदिर से पहले यहां भैरव की मूर्ति एक झोपडें में थी बाद में इसका विस्तार किया गया ।
भैरवनाथ मंदिर में भैरव वास्तव में वैदिक रूद्र के व्याध कृत्य का पथप्रदर्शक है । डा0 यशवंत सिंह कठोच ने गढवाल में प्राप्त मुर्तियों को निश्चित रूप से तांत्रिक कहा है । प्रो0 बनर्जी ने "भैरव और योगनियों में घनिष्ठ संबन्ध बतलाते हुए कहा कि इसमें कुछ भी संदेह नही कि भैरवों व योगनियों को सम्रग संकल्पना स्वरूप में पूर्णत: तांत्रिक है "। यही नही बागची ने अपनी पुस्तक दि"कल्चरल हेरिटेज आफ इंडिया,खण्ड 4पृ0216 में तंत्रों के विकास पर विचार करते हुए लिखा है कि "अष्टमालों के प्रणेता भैरव मानव आचार्य प्रतीत होते है जो पूर्ण आध्यात्मिक मुक्ति पाकर प्राय: शिव रूप हो चुके थे ।" इतिहास वेत्ताओ ने इस संबन्ध में एक निष्कर्ष यह भी निकाला कि ऋषिकेश मंदिर के अधोतल में स्थित पतालेश्वर महादेव से थोडी दूर पर इस गण प्रमुख एवं अनति पर स्थित वीरभद्र प्रधानगण स्थित होने के कारण प्राचीन तट पर शैव तीर्थ पर परवर्तीकाल में क्रमश: वैष्णव संप्रदाय और पश्चात रामावत तथा शक्ति संप्रदाय का भी युग विशेषों में प्रभाव रहा है ।
नवंबर माह में भैरव अष्टमी के दिन मंदिर में भैरव की विषेश पूजा अर्चना की जाती है भैरव की ज्योति का प्रतीक एक अखण्ड दीपक मंदिर में हमेशा प्रज्जवलित रहता है।भगवान शिव के अशांत रूप की नही अपितु संहारक रूप की पूजा भी श्रद्वालुओ द्वारा समान रूप से की जाती है शनिवार के दिन यहां अधिक श्रद्वालु आते है इस स्थान की महत्ता बहुत अधिक है क्योकि लोगों को सिद्वियों की पूर्ति में भैरवनाथ का विशेष महत्व है इसीलिए उनके इस प्राचीन व दुर्लभ रूप के दर्शनों के लिए श्रद्वालु दूर- दूर से आते है।
भैरवनाथ मंदिर में भैरव वास्तव में वैदिक रूद्र के व्याध कृत्य का पथप्रदर्शक है । डा0 यशवंत सिंह कठोच ने गढवाल में प्राप्त मुर्तियों को निश्चित रूप से तांत्रिक कहा है । प्रो0 बनर्जी ने "भैरव और योगनियों में घनिष्ठ संबन्ध बतलाते हुए कहा कि इसमें कुछ भी संदेह नही कि भैरवों व योगनियों को सम्रग संकल्पना स्वरूप में पूर्णत: तांत्रिक है "। यही नही बागची ने अपनी पुस्तक दि"कल्चरल हेरिटेज आफ इंडिया,खण्ड 4पृ0216 में तंत्रों के विकास पर विचार करते हुए लिखा है कि "अष्टमालों के प्रणेता भैरव मानव आचार्य प्रतीत होते है जो पूर्ण आध्यात्मिक मुक्ति पाकर प्राय: शिव रूप हो चुके थे ।" इतिहास वेत्ताओ ने इस संबन्ध में एक निष्कर्ष यह भी निकाला कि ऋषिकेश मंदिर के अधोतल में स्थित पतालेश्वर महादेव से थोडी दूर पर इस गण प्रमुख एवं अनति पर स्थित वीरभद्र प्रधानगण स्थित होने के कारण प्राचीन तट पर शैव तीर्थ पर परवर्तीकाल में क्रमश: वैष्णव संप्रदाय और पश्चात रामावत तथा शक्ति संप्रदाय का भी युग विशेषों में प्रभाव रहा है ।
नवंबर माह में भैरव अष्टमी के दिन मंदिर में भैरव की विषेश पूजा अर्चना की जाती है भैरव की ज्योति का प्रतीक एक अखण्ड दीपक मंदिर में हमेशा प्रज्जवलित रहता है।भगवान शिव के अशांत रूप की नही अपितु संहारक रूप की पूजा भी श्रद्वालुओ द्वारा समान रूप से की जाती है शनिवार के दिन यहां अधिक श्रद्वालु आते है इस स्थान की महत्ता बहुत अधिक है क्योकि लोगों को सिद्वियों की पूर्ति में भैरवनाथ का विशेष महत्व है इसीलिए उनके इस प्राचीन व दुर्लभ रूप के दर्शनों के लिए श्रद्वालु दूर- दूर से आते है।
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