मां तुम आयी धरती पर
उद्वार किया पुरखों का
छलनी है हृदय आज
मेरा देखु जब तेरी दुर्दशा
हर मां के सीने में
यह कैसा दर्द छिपा है
के उसके ही लाडलों ने लहुलुहान किया है ।
एक मां ही होती है
जो जख्मों को छिपा लेती है
किससे कहे व्यथा अपनी
क्या उसकी सुन लेगा
अपनी धुन में इस इन्सा ने
जहनुम धरा को कर दिया है
फिर कौन भगीरथ आयेगा
मां तूझे लुप्त होने से कौन बचा पायेगा
तूझ बिन यह जीवन जीवन नही है
तू है तो प्राण है ,यह जन-जन को कौन समझायेगा,
तू है तो प्राण है, यह जन-जन को कौन समझायेगा............।
यह ब्लाग समर्पित है मां गंगा को , इस देवतुल्य नदी को, जो न सिर्फ मेरी मां है बल्कि एक आस्था है, एक जीवन है, नदियां जीवित है तो हमारी संस्कृति भी जीवित है.
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