पिछली पोस्ट में आपने सोमश्वर महादेव मंदिर व ग्यारह वटवृक्षों बारे में जाना अब जानिए यहां के शिवलिंग की महत्ता के बारे ..............
तीन स्वंयभू शिवलिंग में नीलकंठ के बाद
यह प्रधान पीठ है । "लयं गच्छति भूतानि
संहारे निखिल यत: " अर्थात संहार के समय सपूर्ण चराचर उसी में समाहित हो जाते है उसी से पुन: सृष्टि होती है इसलिए
शिव के लिंग महत्वपूर्ण है ।सोमेश्वर मंदिर के स्वंयभू शिवलिंग को निष्कल त्रेणी के लिंग मे रखा जा सकता है । लिंग पुराण 3108 में निष्कल लिंगो को पूजा के योग्य माना गया है उर्ध्व भाग एवं पूजा के रूपायन के आधार पर लिंगों को दो वर्गो में बांटा गया है -गुप्तोत्तर कालीन शिश्न लिंग एवं मध्यकालीन आकारवादिलिंग।
सोमेश्वर मंदिर स्थित लिंग गुप्तोत्तर कालीन लिंगो में से एक है । जिस प्रकार बाडाहाट में विश्वनाथ एवं गोपेश्वर मंदिरों के लिंग इसी काल के है शिवलिंग में वलय तथा रेखायें उभरी हई है । कहते है कि एक बार किसी ने शिवलिंग को आधुनिक युक्तियों से बनाने का यत्न किया तो रात में ही संपूर्ण निर्माण सामग्री शिवलिंग से हट गयी और यह अपने पुराने स्वरूप में लौट आया । इस तरह के शिवलिंग यत्र -तत्र ही प्राप्त होते है ।
इस सिद्वपीठ की महत्ता के बारे में एक जनश्रुति यह भी मिलती है कि ब्रिटिश शासन काल में एक अंग्रेज ने इस शिवलिंग को स्यंभू (प्राकृतिक रूप से उत्पन्न) नही माना तब इस स्थान की आठ दस फीट गहरी खुदायी करा डाली इस खुदाई के पश्चात एक पूरा पहाड पृथ्वी के नीचे से निकला इसी में यह शिंवलिग स्थापित था । यहां की पौराणिकता में संदेह नही किया जा सकता । महाभारत में भी उल्लेख मिलता है कि जब पांडव हिमालय गये तो माता कुंती समेत पांचो पुत्रो ने इस शिवंलिग का
जलाभिषेक किया था।
मंदिर के आस पास ऋषि मुनियों के समाधि स्थल है ।वट वृक्ष एंव पीपल के वृक्षों से घिरे इस मंदिर की वातावरण शान्त व रमणिक है । साधुओ की धूनी यहां हमेशा जलती रहती है व प्रसाद के तौर पर भभूत श्रद्वालुओं को दी जाती है।
सावन के महीने में व महाशिवरात्रि के दिन इस स्यंभू शिवलिंग पर जल चढाने तथा पूजा अर्चना करने का विशेष महत्व है । अपनी मनोकामनां पर्ण करने के लिए मंदिर शिंव परिवार की पूजा व रूद्राभिषेक कराने का अत्यन्त महत्व है।
इतने पौराणकि व ऎतिहासकि महत्व का मंदिर होने के बावजूद यहां का अभी तक कुछ खास विकास नही हुआ है । एक तरफ तो उत्तराखण्ड सरकार धार्मिक पर्यटन को बढाने व विकास के लिए
प्रयासरत है पर जब बात इतने महत्वपूर्ण स्थलो की होती है तो इनके हिस्से में सिर्फ उपेक्षा ही आती है।
यदि हालात इस तरह के ही रहे तो एक दिन यह पौराणिक स्थल केवल आबादी से घिर कर अपनी महत्ता व शान्त वातावरण को नष्ट कर बैठेगे ओर भविष्य में देवभूमि उत्तराखण्ड के पास विश्व को देने के लिए सिर्फ अशान्ति ही होगी शान्ति नही जिस पर देवभूमि के लोग गर्व करते है की हमारी भूमि
के दर्शन मात्र से शान्ति मिलती है ।
Sunita Sharma Khatri
Freelancer Journalist
Uttarakhand
तीन स्वंयभू शिवलिंग में नीलकंठ के बाद
यह प्रधान पीठ है । "लयं गच्छति भूतानि
संहारे निखिल यत: " अर्थात संहार के समय सपूर्ण चराचर उसी में समाहित हो जाते है उसी से पुन: सृष्टि होती है इसलिए
शिव के लिंग महत्वपूर्ण है ।सोमेश्वर मंदिर के स्वंयभू शिवलिंग को निष्कल त्रेणी के लिंग मे रखा जा सकता है । लिंग पुराण 3108 में निष्कल लिंगो को पूजा के योग्य माना गया है उर्ध्व भाग एवं पूजा के रूपायन के आधार पर लिंगों को दो वर्गो में बांटा गया है -गुप्तोत्तर कालीन शिश्न लिंग एवं मध्यकालीन आकारवादिलिंग।
सोमेश्वर मंदिर स्थित लिंग गुप्तोत्तर कालीन लिंगो में से एक है । जिस प्रकार बाडाहाट में विश्वनाथ एवं गोपेश्वर मंदिरों के लिंग इसी काल के है शिवलिंग में वलय तथा रेखायें उभरी हई है । कहते है कि एक बार किसी ने शिवलिंग को आधुनिक युक्तियों से बनाने का यत्न किया तो रात में ही संपूर्ण निर्माण सामग्री शिवलिंग से हट गयी और यह अपने पुराने स्वरूप में लौट आया । इस तरह के शिवलिंग यत्र -तत्र ही प्राप्त होते है ।
इस सिद्वपीठ की महत्ता के बारे में एक जनश्रुति यह भी मिलती है कि ब्रिटिश शासन काल में एक अंग्रेज ने इस शिवलिंग को स्यंभू (प्राकृतिक रूप से उत्पन्न) नही माना तब इस स्थान की आठ दस फीट गहरी खुदायी करा डाली इस खुदाई के पश्चात एक पूरा पहाड पृथ्वी के नीचे से निकला इसी में यह शिंवलिग स्थापित था । यहां की पौराणिकता में संदेह नही किया जा सकता । महाभारत में भी उल्लेख मिलता है कि जब पांडव हिमालय गये तो माता कुंती समेत पांचो पुत्रो ने इस शिवंलिग का
जलाभिषेक किया था।
मंदिर के आस पास ऋषि मुनियों के समाधि स्थल है ।वट वृक्ष एंव पीपल के वृक्षों से घिरे इस मंदिर की वातावरण शान्त व रमणिक है । साधुओ की धूनी यहां हमेशा जलती रहती है व प्रसाद के तौर पर भभूत श्रद्वालुओं को दी जाती है।
सावन के महीने में व महाशिवरात्रि के दिन इस स्यंभू शिवलिंग पर जल चढाने तथा पूजा अर्चना करने का विशेष महत्व है । अपनी मनोकामनां पर्ण करने के लिए मंदिर शिंव परिवार की पूजा व रूद्राभिषेक कराने का अत्यन्त महत्व है।
इतने पौराणकि व ऎतिहासकि महत्व का मंदिर होने के बावजूद यहां का अभी तक कुछ खास विकास नही हुआ है । एक तरफ तो उत्तराखण्ड सरकार धार्मिक पर्यटन को बढाने व विकास के लिए
प्रयासरत है पर जब बात इतने महत्वपूर्ण स्थलो की होती है तो इनके हिस्से में सिर्फ उपेक्षा ही आती है।
यदि हालात इस तरह के ही रहे तो एक दिन यह पौराणिक स्थल केवल आबादी से घिर कर अपनी महत्ता व शान्त वातावरण को नष्ट कर बैठेगे ओर भविष्य में देवभूमि उत्तराखण्ड के पास विश्व को देने के लिए सिर्फ अशान्ति ही होगी शान्ति नही जिस पर देवभूमि के लोग गर्व करते है की हमारी भूमि
के दर्शन मात्र से शान्ति मिलती है ।
Sunita Sharma Khatri
Freelancer Journalist
Uttarakhand
2 comments:
बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट..जय भोले नाथ
जानकारीपरक. मन को शांति और सुकून पहुंचाती आपकी आध्यात्मिक पोस्टें.आभार.
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